Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 405
________________ णमोकार मथ साक्षी करने वाला कोई नहीं है सो बिना साक्षी सच भी झूठा हो जाता है। अब राजा को किस प्रकार उत्तर दू जिससे भ्रम मिटे' इत्यादि सोच विचार कर ही रहे थे कि पूर्व पुन्य के योग से दो मुनिराज विहार करते हुए कहीं से वहाँ पा गए । सो ये दोनों उन दोनों को देखकर परमानंदित हो उठ खड़े हुए और बड़ी विनय से स्तुति करने लगे। तदनंतर गुरु की स्तुति करके वे दोनों अपने-२ स्थान पर बैठ गए और श्रीगुरु ने उनको धर्मवृद्धि देकर संसार सागर तारक सद्धर्म का उपदेश दिया जिसे उन्हों ने ध्यानपूर्वक सुनकर हृदय में धारण किया । पश्चात् राजा कनक केतू ने विनयपूर्वक पूछा--"हे प्रभो! यह पुरुष (श्रीपाल) कौन है और किस कारण से यहाँ आया सो सब वृतांत कहिए ?" तब मुनिराज ने श्रीपाल का कुष्ट रोग से व्यथित होना, जिसके कारण से स्वदेश को छोड़कर सात सौ सखामों सहित वन में रहना। वहां पर पूर्व पुण्योदय से राजा पदुपाल का संयोग होना तथा प्रसन्न होकर उज्जैन ले जाकर मनासुन्दरी का विवाह होना आदि समस्त वृतांत सविस्तार ज्यों का त्यों कह सुनाया। श्रीपाल का चरित्र सुनकर राजा बहुत प्रसन्म हुआ और मुनिवरों को नमस्कार कर श्रीराल जी को साथ ले अपने महल को पाया तथा शुभ घड़ो व शुभ मुहूर्त विचार कर अपनी पुत्री रयणमंजूषा का विवाह उनके साथ कर दिया । इस प्रकार श्रीपाल रयणमंजूषा से शादी करके वहाँ पर सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे तथा धवल सेठ भी यथायोग्य वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने लगे। कुछ समय के अनंतर जब धवल सेठ व्यापार कर चुके थे तब श्रीपाल से सहमत होकर राजा के पास आए और विनीत भाव से कहने लगे :-- हे नरनायक! प्रजा बालस्वामी! हमको आप प्रसाद बहत आनन्द रहा तथा हमने बहुत सुख भोगा । अब आपकी प्राज्ञा हो तो हम लोग देशांतर को प्रयाण करें ।" यद्यपि राजा को सेठ के ये वचन अच्छे नहीं मालूम होते थे परंतु ये सोचकर कि यदि हम उन्हें ह पूर्वक ठहराये रक्खेगें तो इन्हें अंतरंग में दुःख होगा । अतएव इनकी अभिरुचि के अनुकूल ही करना उचित है। प्रत: वे उदास होकर बोले-"पाप लोगों की जैसी इच्छा हो और जिस तरह आपको हर्ष हो सो ही हमको स्वीकार है ।" इस प्रकार इनके वचन स्त्रीकार कर देशांतर को नमन करने को प्राशा दे दी और बहुत-सा धन, धान्य, दासी, दास, हिरण्य, सुवर्णादि तथा अमूल्य रत्न भेंट देकर निज पुत्री रयणमंजूषा को विदा कर दिया। चलते समय राजा बहुत दूर पहुँचाने को गये। पश्चात् श्रीपाल और प्रवल से अपनी क्षमा मांग कर राजा निकटवर्ती मनुष्यों सहित लौट कर अपने निवास स्थान पर पाए। थीपाल ने वहाँ से विदा होकर प्रौर रयणमंजूषा को साथ लेकर हंसद्वीप से प्रयाण किया। श्रीपाल जब रयणमंजूषा को साथ लेकर धवल सेठ के साथ जलयात्रा करने लगे तब राजा और हंसद्वीप के अन्य मनुष्यों को इनके वियोग से बड़ा दुःख हुआ । श्रीपाल को ससुर के छोड़ने में तथा रयणमंजूषा को मातापिता के छोड़ने का भी इतना ही रंज हुमा जितना कि उनको हुआ था। परंतु वे ज्यों-ज्यों दूर-दूर निकलते जाते थे त्यों-त्यों परस्पर की याद भूलने से दुःख कम हो जाता था। ये देपति सुख पूर्वक समय व्यतीत करके सर्वसंघ मन रंजायमान करते हुए चले जा रहे थे । सब जहाजों के स्त्री-पुरुषों में इन दोनों के पुण्य की महिमा कही जाती थी। ये दोनों सबके दर्शनीय हो रहे थे परंतु दुष्टकर्म इनके इस प्रानन्द को सहन नहीं कर सका इसलिए उसने इनके सुख में बाधा डालनी प्रारम्भ कर दी प्रर्थात् वह कुतघ्नी बणिक (धवलसेठ) जो इनको धर्म सुत बनाकर और दसवें भाग द्रव्य देने का प्रण करके साय लाया पा रमणमंजूषा की अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता देखकर मोहित हो गया पौर निरंतर उसी को प्राप्ति के

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