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णमोकार प्रष
तो यह एक-एक को पकड़ कर समुद्र में डुबो कर नाम निशान मिटा देगें। यह सोच कर श्रीपाल की शरण में पाए और सेठ का बन्धन छोड़कर नतमस्तक होकर बोले-"स्वामिन् ! हम लोग प्रापकी शरण में हैं जो चाहे जो सजा दीजिए।" तब श्रीपाल ने धवल सेठ से पूछा- "हे तात ! इन लोगों को क्या प्राज्ञा है?" धवल सेठ तो भर चित्त. अविचारी तथा लोभी था। मंत्रणा करके बोला--"इन सबको बहुत कष्ट देकर मार डालना चाहिए।" श्रीपाल जी ऐसे कठोर वचन सुनकर बोले- ये तात ! उत्तम पुरुषों का कोप क्षण मात्र होता है और शरण में पाए हुए को जो भी मारता है वह महा निर्दयी अधोगति का अधिकारी होता है। दयालु मनुष्यों का भूषण दया ही धर्म का मूल है । दया के बिना अप, तप, अत, उपवास प्रादि माचरण करना केवल कषायमात्र है प्रतएव मनुष्ट मात्र को दया को कभी नहीं छोड़ना चाहिए और फिर जब हम सरीखे पुरुष आपके साथ मौजद हैं फिर आपको चिन्ता ही किस बात की है ?" तब लज्जित होकर सेठ ने कहा-"कुमार आपकी इच्छा हो सो करो । मुझे उसी से सन्तोष है।"
तब श्रीपाल जी इस प्रकार उन चोरों को लेकर अपने जहाज पर भाए और उन सबके बंधन खोलकर बोले-~"हे वीरो ! मुझे क्षमा करो। मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया । आप यदि हमारे स्वामी को पकड़कर नहीं ले जाते तो यह समय प्राता नहीं।" इत्यादि सबसे क्षमा मांग कर सबको स्नान कराया और वस्त्राभूषण पहनाकर सबको पंचामृत का भोजन कराया तथा पान, इलायची व इत्र, फुलेल प्रादि द्रव्यों से भली प्रकार सम्मानित किया। वे डाकू श्रीपाल जी के इस बर्ताव से अति प्रसन्न हुए और सहस्त्र मुख से स्तुति करने लगे और प्रपना मस्तक श्रीपाल के चरणों में रख कर बोले-'हे नाथ ! हम पर कृपा करो ! धन्य हो पाप, प्रापका नाम चिरस्मरणीय है।" इस प्रकार परस्पर मिलकर वे डाकू श्रीपाल से विदा होकर अपने घर गए और श्रीपाल तथा धवल सेठ मानन्द से मिलकर समय व्यतीत करने लगे और अपनी आगामी यात्रा का विचार कर प्रयाण करने को उद्यत हुए । वे डाकू लोग श्रीपाल से विदा होकर अपने स्थान पर गए और श्रीपाल के साहस और पराक्रम की प्रशंसा करने लगे-'धन्य हैं उस वीर का बल कि जिसने बिना हथियार एक लाख डाकू बांध लिए और फिर सबको छोड़कर उनके साय बड़ा अच्छा सलूक किया, इसलिए इसको इसके बदले अवश्य ही कुछ भेंट करना चाहिए क्योंकि अपने लोगों ने बहुत से डाके मारे और अनेक देशों में अनेक पुरुष देखे हैं परंतु प्राज तक ऐसा कभी नहीं देखा है।
इसने पूर्व जन्मों में अवश्य ही महान तप किया है या सुपात्र दान दिया है इसी का यह फल है-ऐसा विचार कर वे 'चोर बहुत सा द्रव्य लेकर और सात जहाज रत्नों से भरे हुए प्रपने साथ ले श्रीपाल के निकट पाये और विनय सहित स्सूति कर वे जहाज बन्य सहित भेंट कर विदा हो ग ठीक कहा :-'पुण्य से क्या काम नहीं हो सकता है।' पुण्य को महिमा प्रचित्य है । ऐसा जान सब पुरुषों को पुण्य सम्पादन करना चाहिए । इस प्रकार श्रीपाल जी उन डाकुमों से रत्नों के भरे सात जहाज भेंट स्वरूप लेकर उन्हें अपना माज्ञाकारी बना धबल सेठ के साथ समुद्र यात्रा करते हुए कुछ दिनों में इंसद्वीप में जा पहुंचे। यह द्वीप वन, उपवनों से सुशोभित रत्न, सुवर्ण, रुप्य ताम्रादि खानों और सुन्दर २ सुगन्धित वृक्षों तथा मनोज्ञउतंग मंदिरों से परिपूर्ण स्वर्णपुरी के समान मनोहर मालूम होता था। इस द्वीप का राजा कनककेतू और रानी कंचनमाली थी। इसके दो पुत्र प्रौर रयणमंजूषा नाम की एक कन्या थी। जब वह यौवन अवस्था में पदार्पण करने लगी तो राजा को उसके वर के अनुसंधान करने की चिता