Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 398
________________ णमोकार ग्रंथ ३७५ में उज्जैन के उद्यान में पहुंच गई । वहां पहुंचकर पुरुजनों के द्वारा श्रीपाल के मैनासुन्दरी के साथ विवाह होने और रोग मुक्त होने का वृतान्त सुनकर बहुत प्रसन्न हुई। पश्चात श्रीपाल के महल के द्वार पर गई । नियमानुसार द्वारपाल से राजा को स्वबर देने के लिए कहा । तब शीघ्र ही द्वारपाल ने जाकर महाराज श्रीवाल से सनापार कह सुनाया। श्रीपाल माता का प्रागमन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और मैंनासुन्दरी को अपने माता के पागमन से सूचित कर माता की अगवानी के लिए पाए। मैनासुन्दरी भी सास की अगवानी के लिए आई। दोनों ने कुन्दप्रभा के पादारबिन्दों को स्पर्श कर मस्तक नवाया । तब माता ने उन दोनों को पुत्र पुत्री की तरह गले लगा लिया तथा शुभाशीर्वाद दिया । अत्यन्त प्रेम व बहत दिनों में विपसिके पश्चात मिलने के कारण सबके नेत्रों से अश्रुपात होने लगे और हर्ष से रोमांच हो पाए। पश्चात परस्पर कुशल समाचार पूछने लगे। तब धीपाल ने अपने उज्जैन में मैनासुन्दरी से विवाह होने और सिद्धचक्रवत के प्रभाव से कुष्ठ व्याधि के निवृत होने प्रादि का समस्त प्रायोपांत वृतान्त कह सुनाया । सुनकर माता बहुत प्रसन्न हुई और मैना सुन्दरी को यह आशीर्वाद दिया, "हे पुत्री! तू बहुत-सी रानियों की पटरानी हो और श्रीपाल कोटिभट्ट चिरंजीव रहें तथा पदुपाल राजा जिसने उपकार पर निज पुत्रीरत्न मेरे पुत्र को दिया सो बहुत ही कीर्ति वैभव को प्राप्त हो।" ___ माता का यह आशीर्वाद सुनकर बहू बेटा अर्थात मैनासुन्दरी और श्रीपाल ने अपना मस्तक झका लिया और विनीत भाव से कहने लगे, "हे माता ! यह सब अापका प्रभाव है। हमने ग्राज ही सम्पूर्ण प्रानन्द प्राप्त किया। धन्य है आज का दिन व घड़ी जो आपके दर्शन मिले । आपके शुभार्शीवाद से मन पवित्र हुश्रा । तात्पर्य यह है कि हम लोग आपके दर्शन से प्राज कृत कृत्य हुए है"- इत्यादि परस्पर वार्तालाप करने के पश्चात अपना अपना समय प्रानन्द पूर्वक बिताने लगे। श्रीपाल को प्रिया सहित उज्जैन में रहते हुए बहुत दिन हो गए । प्रानन्द में समय जाते मालूम नहीं होता है। एक दिन अपने गार में ये दम्पति सुखपूर्वक सो रहे थे कि अचानक श्रीपाल की प्रांख खुल गई तथा उनको एक बड़ी भारी चिन्ता ने पाकर घेर लिया । वे पड़े पड़े करवटें बदलते और दीर्घ निश्वास लेने लगे। तब पतिभक्ति परायण मैनासुन्दरी ने पति को व्याकुल चित्त देखकर सविनय पूछा- "हे प्राणाधार? प्राज पाप कुछ चितित मालूम होते हैं। चिंता का क्या कारण है वह कृपा कर कहिए ?" तब श्रीपाल ने बहुत कुछ सकुचाते हुए कहा - "हे प्रिये ! मुझे और तो किसी प्रकार की चिन्ता नहीं हैं, केवल यही चिन्ता है कि यहीं रहने से सब लोग मुझे राज जवाई ही कहते हैं तथा मेरे पिता का कोई नाम नहीं लेता पौर के पुत्र जिन से पिता का कुल व नाम लोप हो जाय यथार्थ में पुत्र कहलाने के योग्य नहीं है। यही बात मेरे चित्त को चिन्तित करती है क्योंकि कहा है कि "मुता और सुत के विष, अन्तर इतनो होय । वह परवंश बढ़ायती, यह निज बंशहि सोय ॥ जो सुत तज निज स्वजन पुर, रहें श्वशुर गृह जाय। सो कपूत जग जानिए, अति निर्लज्ज बनाय ।। इसलिए है प्रिये ! अब मुझे यहां एक क्षण भी दिन के समान प्रतीत होता है बस केवल यही दुःख है और मुझे कोई दुख नहीं।" यह मुनकर मैनासुन्दरी ने कहा, "हे नाथ प्रापका यह विचार विल्कुल सत्य और बहुत उत्तम है। जिन पुत्रों ने अपने कुल, देश, जाति, धर्म व पितादि गुरुजनों के नाम

Loading...

Page Navigation
1 ... 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427