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णमोकार ग्रंथ पाराधन करने से उन्हें एक ही दिन में विद्या सिद्ध हो गई तब उन्हें सफल देखकर वह वीर उठा पौर प्रणाम करके श्रीपाल की स्तुति कर उनसे कहने लगा
"है स्वामिन् । यह विद्या आप ही अपने पास रखिये तथा मुझे मेरे घर जाने की आज्ञा दीजिए।" तब श्रीपाल ने कहा -"हे वीर ! मेरा यह धर्म नहीं है कि दूसरे को विद्या को छीन कर मैं गिधागन बनूं । गरे मैंने इसमें किया ही दपा है ? तुम्हारे दुराग्रह से मैंने अपनी शक्ति की परीक्षा की है"-ऐसा कह उस विद्याधर को वह विद्या दे दी। तब पुनः उस विद्याधर ने स्तुति करके कहा-"हे स्वामिन ! यदि आप इस विद्या को स्वीकार नहीं करते है तो ये जलतारिणो व शत्रुनिवारिणी ये दो विद्यायें अवश्य ही भेंट स्वरूप स्वीकार कीजिए तथा मुझ पर अनुग्रह कर मेरे गृहको अपने पवित्र चरण कमलों से पवित्र कीजिए"-ऐसा कह उक्त दोनों विद्याएं श्रीपाल जी को भेंट स्वरूप देकर अपने स्थान पर ले गया तथा कुछ दिन तक अपने यहाँ रख कर बहुत सेवा को । पश्चात् उनको उनको इच्छानुसार विदा कर प्राप सानंद प्रायु व्यतीत करने लगा। इस प्रकार श्रोपाल जी ने घर से निकल कर वत्सनगर के विद्याधर को अपना सेवक बनाकर और उससे उक्त दो विद्याएँ भेंट स्वरूप ग्रहण कर भागे को प्रयाण किया और वहां से चलकर भू मुकच्छपुर पाए । यह नगर समुद्र तट के समीप होने से प्रति रमणीक था सो वे चमते-घमत उस नगर के उपवन में पहुंचे और वहाँ पास हो एक स्थान पर जिन मर्मा हर्षित हो प्रभु के दर्शनार्थ उसमें प्रवेश किया वहाँ भगवान को सभक्ति साष्टांग नमस्कार कर के स्तवन कर अपना धन्य, जन्म मानने लगे। श्रीपाल भगवान का दर्शन स्तवन व सिद्धचक्रव्रत का पाराधन करते कितने ही काल पर्यन्त इसी नगर में रहे । इसी समय कौशाम्बी नगरी निवासी धवल सेठ व्यापार के निमित्त देशांतर को जाने के लिए पांच सौ जहाज भर कर इसी नगर के समीप पाया। पवन के योग से वे जहाज किसी खाड़ी में जा पड़े। उस सेठ के साथ जितने आदमी थे उन सब ने मिलकर शक्ति भर प्रयत्न किया परन्तु वे जहाज खाड़ी से न निकाल सके। तब सेठ को भारी चिन्ता हुई। तब वह वहाँ से उदास चित्त नगर में गया और वहां किसी दक्ष निमित्त ज्ञानी से अपना वृत्तान्त निवेदन कर जहाजों के भटक जाने का कारण पूछा । तब उसने कहा-"हे श्रेष्ठि! तुम्हारे अशुभ कर्म का उदय है इसलिए तुम्हारे जहाज जलदेवों ने कील दिए हैं यदि किसी गुणवान्, सुन्दर, गम्भीर और शुभ लक्षणवंत तथा शूर वीर पुरुष की उन देवों को बलि दी जाए तो तुम्हारे जहाज चल सकते हैं अन्यथा नहीं।" यह सुनकर सेठ अपने डेरे में पाया और अपने मंत्रियों से मंत्रणा करके बहुमूल्य वस्तुएं भेंट स्वरूप ले जाकर राजा से मिला।
राजा को अपनी प्रमूल्य वस्तुएँ भेंट पाने से प्रसन्नचित देखकर अपना समस्त वृतान्त कह सुनाया और एक मनुष्य को बलि देने की प्राज्ञा प्राप्त कर ली और तदनुसार ऐसे मनुष्य को जो कि अकेला हो, गुणवान हो, निर्भय हो ढूंढने के लिए अपने सेवकगण चारों प्रोर भेज दिए। उनमें से कुछ मनुष्य वहां जा किलले जहाँ पर उपवन में एक वृक्ष के नीचे श्रीपाल जी शीतल छाया में सो रहे थे। उन्हें सोते हुए देखकर वे मन में विचार करने लगे कि जैसा पुरुष चाहिए, यह ठीक वैसा ही मिल गया है। बस अपना काम बन गया परन्तु उन्हें जगाने का किसी को साहस नहीं पड़ता था। सब लोग एक दूसरे को उसे जगाने की प्रेरणा दे रहे थे। कि इतने में श्रीपाल जी की नींद खुल गई पौर खि खुलते ही मपने माप को चारों भोर से मनुष्यों से घिरा हुमा पाया तब निःशंक होकर बोले-"तुम कौन हो और मेरे पास किस लिए पाए हो?"