Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 394
________________ णमोकार अथ मागती हैं ? सुशील कन्याएँ तो स्वप्न में भी ऐसा संकल्प नहीं करतीं-इत्यादि विचारों में निमग्न हुई पुत्री लज्जा के मारे अधोमुख करके नीचे की ओर देखती रही तत्र भी राजा ने इसका हार्दिक भाव नहीं समझा और पुनः दूसरी तीसरी बार इसी बात को पूछने लगे । अन्त में मैना सुन्दरी ने जब पिता का इसी बात पर विशेष आग्रह देखा तो वह लाचार होकर बोली-- "तात, वचन सुन मम प्रय, मन में देख विचार, । ___ मुख से बर मांगे नहीं, जे कुलवन्ति कुमारि ।" अर्थ-हे पिता ! पुत्रो के सन्मुख पापको ऐसे लज्जाशून्य बचन नहीं कहने चाहिए।' इस प्रश्न का उत्तर देना हम कुलीन कन्याओं का धर्म नहीं है क्योंकि उच्च वंश को कन्याए" अविवाहित रहना स्वीकार करती हैं परन्तु कभी भी अपने मुख से वर नहीं मांगती। माता-पिता अादि स्वजन वा गुरुजन जिसके साथ व्याह देते हैं वह ही वर उनके लिए कामदेव के समान रूपवान और कबेर के समान धनी होता है चाहे वह ऋणी हो, रंक हो, धनी हो, रोगो हो, निरोगी हो, असुन्दर हो, सुन्दर हो, करूप हो, सुरूप हो, पंडित हो, गुणहीन हो तथा गुण सम्पन्नही परतु कुलीन वनजन्यायों के लिए वही वर उपादेय प्रर्थात् ग्रहण योग्य होता है । दूसरे यह सब बात भाग्य से होती है । आपके कहने और करने से ही क्या? क्योंकि जैसा जिसका सम्बन्ध होता है वैसा इष्ट मनिष्ट वस्तुओं का संयोग कम वश स्वयमेव ही आकर मिल जाता है इसीलिए "हे पिता जी ! आपको अधिकार है चाहे जिसके साथ आप मेरा ब्याह कर दीजिए।" पश्री के ऐसे वचन सनकर राजा को बहत क्रोध आया और मन ही मन में क्रोध से विहल होकर चित्त में ठान लिया कि पुत्री जो मेरे घर में उत्तमोत्तम भोगोपभोगों को भोगती हुई सबको निज कर्मोदय प्राप्त बतलाकर मेरे उपकार का लोप करते हुए इतने गर्व से युक्त वचन कहती है अतएव मुझे भी अब इसके कर्म की परीक्षा करनी है । मैं भी अब इसे हीनवर के साथ व्याहूंगा । देख इसका कर्म क्या करता है ?'-ऐसा विचार कर कुछ समय पश्चात् महाराज पदुपाल मंत्रियों को साथ लेकर होनघर की खोज करने के लिए निकले सो चलते-चलते उसी वन में जा पहुँचे जहां महाराज श्रीपाल अपने सात सौ वीरों सहित पूर्वोपाजित अशुभ कर्म का फल भोग रहे थे । श्रीपाल राजा पदुपाल को अपने पास प्रति निजासन से उठ खड़े हुए और यथायोग्य स्वागत करके कुशल प्रश्न के अनन्तर अपने पास तक पाने का कारण पूछने लगे। राजा पदुपाल ने कहा-'मैं तो बन क्रीड़ा के लिए निकल पाया हूँ। प्रापका पागमन यहां कैसे हुमा और किस कारण नगर बसाया है ? ' यह सुनकर राजा श्रीपाल ने अपना आद्योपात सब वृतांत कह सुनाया । सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुमा और बोला---'मैं तुमसे बहत संतुष्ट हुमा हूं जो तुम्हें इच्छित हो सो मांगो, मैं देने को तत्पर हूं।' श्रीपाल ने अबसर देखकर कहा--"राजन् । यदि आपकी मुझ पर सन्तुष्टता है और प्राग्रह पूर्वक वर देना ही चाहते हैं तो भाप अपनी पुत्री मैनासुन्दरी मुझे दे दीजिए।' श्रीपाल के वचन सनकर पदुपाल को एक बार तो क्रोध आया परंतु साथ ही मैनासुन्दरी के वाक्यों का स्मरण कर शांत होकर सहर्ष बोले-'अरे कुष्टी राय ! मैंने तुझको मपनी लघु पुत्री प्रदान की । तू अब अपने सखामों सहित मेरे साथ चल पौर मैना सुन्दरी का सहर्ष वरण कर जिससे तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो।' श्रीपाल मे हषित होकर राजा के बचनों को सादर स्वीकार कर लिया और उनके साथ चलने को तत्पर हो गए। महाराज पदुपाल ने कुष्टी श्रीपाल को सात सौ वीरों सहित लेकर अपने मगरको

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