Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 388
________________ 1 णमोकार संय ३६५ इन्द्र की उत्पत्ति ग्रह का स्वरूप कहते हैं उस मानस्तम्भ के निकट आठ योजन चौड़ा, इतना ही लम्बा और ऊँचा उपपाद ग्रह में दो रत्न शय्या हैं जिनमें इन्द्र का स्थान होता है । इसके ही उपपाद ग्रह के पास अनेक शिखरों संयुक्त जिन भगवान का बहुत सुन्दर मंदिर है। कल्पवासी देवांगनाएँ सौधर्म, ईशान स्वर्ग में ही उत्पन्न होती हैं, अन्य कल्पों में नहीं । जिसमें केवल देवांगनराम्रों का ही जन्म होता है ऐसे विमान सौधर्म में छह लाख चे ईशान ने चार लाख एवं समस्त दस लाख हैं। इन विमानों के उत्पन्न होने के अनन्तर जिन देवों की नियोगिनी होती हैं उन्हें ऊपर के कल्पवासी देव अपने स्थान पर ले जाते हैं । अवशेष से ' धर्म के छब्बीस लाख और ईसान के चौबीस लाख विमान ऐसे हैं जिनमें देव, देवांगना दोनों हो मिश्र उत्पन्न होते हैं । मागे देव देवांगनाओं के प्रयोचार का वर्णन लिखते हैं- भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिष्कों में श्रीर सौधर्म तथा ईशान इन दो स्वर्गो के देवों में शरीर से काम सेवन होता है जैसे कि मनुष्यों आदि में होत है । अत्रशेष सनत्कुमार और माहेन्द्र- इन दो स्वर्गो के देव देवियों की कामवासना परस्पर ग्रंग स्पयं करने से, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ट-इन चार स्वर्गों में स्वाभाविक सुन्दरता और श्रृंगार युव रूपादि को देखने से; शुक्र, महानुक, सतार और सहस्वार - इन चार स्वर्गो में प्रेम भरे, मधुर वचनालाप आदि से और थानत प्राणत, भारण, अच्युत - इन चार स्वर्गों में परस्पर मन में स्मरण करने से ही कामवासना नष्ट हो जाती है। इन सोलह कल्पों से ऊपर नव ग्रं वेयक, नव अनुदिश और पंचानुत्तरों में रहने वाले देव कामसेवन से रहित हैं अर्थात् इनके कानवासना होती हो नहीं। ये सदैव धर्म ध्यान में लीन रहते हैं । आगे वैमानिक देवों की विक्रया शक्ति और अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र कहते हैं सौधर्म युगलवासी देव अवधि के द्वारा प्रथम भूमि पर्यन्त देखते हैं । सनत्कुमार युगलवासी देव दूसरी पृथ्वी तक शुक्र और सतार युगल के देव चौथी भूमि तक, भानत, प्राणत, प्रारण तथा अच्युत कल्पवासी देव पाँचदों भूमि तक और पंचानुत्तरों के देव सप्तम भूमि नीचे वनुदातवलय पर्यन्त किचित् न्यून सम्पूर्ण लोक नाड़ी को अवधि द्वारा देखते हैं। विक्रिया शक्ति भी समस्त देवों के अपने अपने अवधि क्षेत्र के समान होती है किन्तु विषयों की उत्कृष्ट बौंछा के न होने से ऊपर-ऊपर के देवो में गमन करने की इच्छा कम होती है इन कल्पवासी देवों का अवधिक्षेत्र चौकोर किन्तु लम्बाई में अधिक और चौड़ाई में थोड़ा होता है और भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी के अवधि का क्षेत्र नीचेनीचे कम और तिर्यक रूप से अधिक होता है। शेष मनुष्य, तिर्यन्च और नारकी का सर्वाधि क्षेत्र बराबर धनरूप होता है । श्रावैमानिक देवों के जन्म-मरण का विरह काल कहते हैं, जितने काल पर्यन्त जहाँ किसी का जन्म न हो उसे जन्मान्तर और जितने काल पर्यन्त मरण न हो उसे भोगान्तर कहते हैं अतः दोनों का उत्कृष्ट काल सौधर्म में सात दिन, सनत्कुमार युगल में एक पक्ष, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांव और कापिष्टकल्प चतुष्कों में एक मास, शुक्र, महाशुक्र, सतार और सहस्त्रार में दो मास, मानव, प्राणत, धारण और अच्युत में चार मास और शेष ग्रंवेयक आदि में चार मास होता है। इन्द्र इन्द्र की महादेवी पौर लोकपाल के मरण के पश्चात् उत्कृष्ट विरहकाल छह मास और त्रास्त्रिशत, अंग रक्षक, सामानिक तथ पारिषद इनका उत्कृष्ट विरहकाल चार मास जानना चाहिए।

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