Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 389
________________ णमोकार च आगे वैमानिक देवों का शरीर प्रमाण कहते हैं, सौधर्म युगल के देवों का शरीर सात हाथ, सनत्कुमार युगल के देवों का छह हाथ, ब्रह्मयुगल के देवों का साढ़े पाँच हाथ, लॉतव युगल के देवों का पाँच हाथ, शुक्र- महाशुक को चार हाथ, सतार-सहस्त्रार के देवों का साई तीन हाथ, मानव, प्राणत श्रीर आरण तथा अच्युत स्वर्ग के देशों का तीन हाथ, नत्र बेयक के प्रथम त्रिक के देवों का ढाई हाथ, दूसरे त्रिक के देवों का दो हाथ, सोसरे त्रिक के देवों का डेढ़ हाथ, नत्र अनुतर देवों का एक हाथ और पंचानुदिवासी देवों का भी एक हाथ शरीर है । ग्रागे वैमानिक देवों की ग्रायु ३६६ कहते है सब ईशान कल्प के देवों की उत्कृष्ट झा दो सागर, सनत्कुमार, माहेन्द्र के देवों की उत्कृष्ट आयु सात सागर, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर के देवों की उत्कृष्ट श्रादश सागर, लांब कापिट के देवों की चौदह सागर शुक्र महाशुक्र के देवों की सोलह सागर, सतार श्रीर सहस्त्रार के देवों की अठारह सागर, ग्रान्त प्राणत के देवों की बीस सागर और आरण अच्युत कर के देवों की बाईस सागर उत्कृष्ट आयु है। इससे आये नवत्रैवेयकों में एक-एक सागर अधिक श्रायु होती है, नवअनुदिशों में और पंचानुत्तर विमानों में एक-एक सागर बढ़ती श्रायु है अर्थात् प्रथम ग्रंवेयक में तेईस सागर, दूसरे ग्रैवेयक में चौबीस सागर तीसरे वेयक में पच्चीस सागर, चौथे प्रवेयक में छब्बीस सागर, पांचवें में सत्ताईस सागर, छठे में अकाईस सागर, सातवें में उनतीस सागर, आठों में तीस सागर, नवमे में इकतीस सागर, नवश्रनुदिशों में बतीस सागर और विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित तथा सर्वासिद्धि इन पाँच विमानों में तेतीस सागर श्रायु है। आगे पूर्वोक्त विमानों में जधन्य श्रायु कहते हैं— सौधर्म ईशान स्वर्ग में जघन्याय एक पल्य है सौधर्म युगल से आगे-आगे पहले पहले युगल की उत्कृष्ट श्रायु श्रगले अगले युगलों में जघन्य है जैसे सौधर्म युगल में उत्कृष्ट श्रायु दो सागर है तो यहीं दो सागर आयु सनत्कुमार युगल में जघन्य है और सनत्कुकार युगल की सात सागर उत्कृष्टायु ब्रह्मब्रह्मोत्तर के जघन्य है इसी प्रकार अन्य कल्पों में जानना चाहिए | प्राचार्यवर्य श्री उमास्वामी कृत तत्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र में जो सहस्वार पर्यन्त के देवों को श्रायु कुछ-कुछ अधिक कही है वह घातयुष्क की अपेक्षा कही है। यदि कोई घालायुष्क सम्यग्दृष्टी सहस्वार पर्यन्त के युगलों में उत्पन्न हो तो उसकी अपने-अपने स्वर्ग को पूर्वोक्त उत्कृष्ट आयु से अन्तर्मुहूर्त कम प्राधे सागर की आयु अधिक हो जाती है जैसे सौधर्म और ईशान स्वर्ग में दो सागर की उत्कृष्ट मायु है और यदि वहां बातायुष्क सम्यग्दृष्टि उत्पन्न हो तो उसकी अंतर्मुहुर्त कम अढ़ाई सागर की श्रायु हो सकती है। इसी तरह घातायुक्क मिथ्यादृष्टि की पत्य के असंख्पात भाग प्रमाण आयु हो सकती है परन्तु यह अधिकता सौधर्म युगल से सतार युगल पर्यन्त के छह युगलों में ही है अन्य में नहीं है क्योंकि आगे के विमानों में घातायुष्क वाले जीव उत्पन्न नहीं होते । भावार्थ - जो पहले प्रायुबंध किया था उसको पश्चात् परिणामों के निमित्त से घटाकर अल्प कर देना घातायुष्क है । वह घातायुष्क दो प्रकार का है- एक अपवर्तन घात, दूसरा कदलीघात । उदय प्राप्त वर्तमान आयु 'कम करने को अपवर्तनघात और उद्दीयमान श्रायु के घटाने को कदलीघात कहते हैं । कदली घात तो यहां सम्भव नहीं इसीलिए यहां अपवर्तन घात का ही ग्रहण किया है सो ऐसा बातायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव व्यंन्तर व ज्योतिषी देवों में उत्पन्न तो साथ पल्य और भवनवासी तथा वैमानिकों में हो तो अन्तर्मुहूत्तं कम ग्राध सागर, पूर्वोक्त उत्कृष्टायु से अधिक आयु वाला होता है और इसी प्रकार घातयुष्क मिथ्यादृष्टि हो तो उसके भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिकों में सर्वत्र पूर्वोक्त उत्कृष्ट आयु के प्रमाण से पल्य के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण श्रायु बढ़ जाती है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427