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णमोकार पंथ
बेचारे से सीता का हृदय द्वावक रुदन न सहा गया। बह निरुपाय हो उसे छुड़ाने के लिए युद्ध करते लगा। अपने से एक बहुत छोटे विद्याधर की ऐसी धृष्टता देखकर रावण को बड़ा क्रोध भाया । उसने उसकी समस्त विद्यानो का हरण कर विना पंख के पक्षी के समान समुद्र में डाल दिया, परन्तु उसका परम प्रकर्ष पुण्योदय था जिससे वह समुद्र में एक स्थल पर पला मोर उसे एक युषित सूझो वह अपने कुछ कपड़े एक लकड़ी से बौध ध्वजा के समान उड़ाने लगा जिससे ग्राकाश मार्ग में आने-जाने वालों को इधर दृष्टि पड़ जाए । उधर पापी निर्दयी रावण ने सती साध्वी सीता पर कुछ दया न कर उसे रुदन विलाप करते हुए ले जाकर लंका के उपबन में बैठा दिया और नित्यप्रति उसको वश में करने का उपाय सोचने लगा. परन्तु यह काम सम्भव न था कि जिस साध्यो ने अपने प्राणायारे के चरण कमलों में अपने मन रूपी भ्रमर को समर्पित कर दिया था वह अब दूसरे की अङ्कशायनी हो अर्थात् कभी नहीं । अब आगे रामचन्द्र का वृत्तांत लिना जाता है।
जब रामचन्द्र लक्ष्मण के पास पहुंचे तो लक्ष्मण को भली प्रकार देखा और लक्ष्मण ने भी देखते ही कहा - "पूज्य ! आप कैसे पाए ? मीता को अकेली ही कहाँ छोड़ पाए ?" ।
रामचन्द्र ने कहा- मैं तुम्हारा सिंहनाद मुनकर पाया हूं।" लक्ष्मण ने कहा "मैंने तो सिंहनाद किया ही नहीं किसी दुष्ट ने सीता को ले जाने के लिये दुष्टता की है श्राप शीघ्र जाइये । कुछ अमंगल होने की संभावना है । जब मैं इन दुष्ट राक्षसों को वश में कर चुका था तो मुझे सिंहनाद करने की क्या आवश्यकता थी?"
ऐसा मुनते ही रामचन्द्र वापिस लौटे और वहां पाकर देखा कि सीता वहां पर नहीं है । उन्होंने चारों ओर घूम घूम कर देखा तो एक स्थान पर अधमरा जटायु पक्षी दिखाई दिया । उसके प्राण कंठगत जानकर उन्होंने उसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाया जिम मंत्र के प्रभाव से वह परम अभ्युदय का धारक देव हुना । रामचन्द्र सीता के न मिलने के कारण उसके असह्य वियोग से धड़ाम से मूछित हो पृथ्वी पर गिर पड़े । जब कुछ मंद मंद शीतल पवन का स्पर्श हुआ तब वे सचेत हुए। वे सीता के वियोग से इतने अधीर हुये कि उन्हें अपने स्वरूप का भी वोध नहीं रहा और पशु तथा पक्षो तो क्या, वे तो वृक्ष और पर्वतों से भी अपनी प्रिया का वृत्तांत पूछने लगे इधर उधर उन्होंने बहुत कुछ खोज की, परन्तु जब कहीं पता न लगा तब वे पुनः सीता के वियोग रूप बच के प्राघात से मूछित हो पृथ्वी पर गिर पड़े। इतने में लक्ष्मण और विराधित भी वहां आ पहुंचे । लक्ष्मण अपने बड़े भाई की दशा देखकर जान गए कि सीता निश्चय पूर्वक हरी गई है।
लक्ष्मण ने निकट जाकर भाई को अभिवंदना की परन्तु इस समय राम तो अपने प्रापे में ही नहीं थे । लक्ष्मण से कहने लगे-"तू कौन है और क्यों ऐसे विकट प्ररण्य में पाया है ?" तब लक्ष्मण ने कहा--"पूज्य ! क्या प्राग भूल गये? मैं तो वहीं पाप का दास लक्ष्मण हूं।"
यह सुनकर रामचन्द्र को कुछ स्मृति प्राई, वे लक्ष्मण से बोले- 'भाई ! सीता हरी गयी। उसको कोई पापी उड़ा ले गया।"
यह सुनकर लक्ष्मण भी बहुत दुःखी हुए। दोनों मिलकर रुदन करने लगे। विराधित ने इन दोनों को जैसे तैसे समझाकर रोने से रोका । विराधित को भी अपने उपकारकर्ता के ऊपर अनायास आपत्ति पा जाने से बड़ा दुःख हुआ। संयोगवश यहीं पर वानरवंपिायों का स्वामी सुग्रीव भी विराषित से प्रा मिला और अपने पर बीती हुई समस्त घटना कह सुनाई। विराधित ने भी उसको रामचन्द्र का