Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 322
________________ णमोकार मंच २६ के प्राप्त होने पर ही चारित्र का धारण करना कार्यकारी हो अन्यथा व्रतादि धारण करने का प्रयास करना धान्यतृप खंडनवत् व्यर्थ है। अतएव उन पुरुषों को जो सुख प्राप्त होने की इच्छा रखते हैं उन्हे मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व चारित्र धारण करना चाहिए । विश्वास है कि तुम भी अपने हित के लिए इसे ग्रहण करने का यत्न करोगे । इसना कहकर भगवान ने कहा कि "मैं तुम वचन कहे हितकार। तू अपने घर देख विचार । भलो लग लोई कर मिसावथा मलीन करे मत सित्ता " इतना कहकर भगवान वहां से चल दिए और निज राजसभा में मा विराजे । उधर वह सर्प युगल जो खंड-खंड हो गये थे वे अभी कुछ जीवित थे। उनकी होनहार अच्छी थी या कालनधि आ गई थी। यही कारण था कि उन्होंने तापसी के प्रति दिया हुअा भगवान का सदुपदेश सुन उसके वचनों पर विश्वास कर मिथ्यात्व के परित्यागपूर्वक जिन धर्म के ध्यान करने में जो लगाया और इन्हीं शुद्ध परिणामों के साथ दोनों ने प्राण विसर्जन कर दिए जिसके प्रभाव से सर्प युगल धरणेन्द्र, पद्मावती हुए। कालान्तर में वह तापसी भी प्रायु के अन्त मरण कर अज्ञान तप के प्रभाव से संबर नामक ज्योतिषी देव हुमा। चौपाई देखो जगत में तप प्रभाव । ज्ञान बिना बांधी सुनाव । जे नर करें जैन तप सार। तिन्हें कहां दुर्लभ संसार ॥१॥ अथानन्तर श्री पार्श्वनाथ भगवान रोग, शोक, चिता, भय आदि दोपों से रहित राज्य विभूति जनित सुखों का अनुभव करते हुए प्रानन्द उत्सव के साथ दिन व्यतीत करने लगे । भगवान जन तोस वर्ष के हए किसी अवसर में एक दिन अयोध्यापति महाराजा जयगन ने भगवान की अनन्य भक्ति और प्रेम से त्राधिन होकर उसकी सेवा में उत्तम-उत्तम बहमुल्य वस्तु पर देने के लिा देकर अपने एक दूत को बनारस नगरी में भेजा। दूत वनारस में पहुंचकर द्वारपाल को प्राजा ले राजसभा में गया जहाँ भगवान पार्श्वनाथ सुवर्णमय सिंहासन पर अधिष्ठित थे। भगवान के देखते ही दूत के रोमांस हो आए उसने सानन्द भक्ति पूर्वक उनके चरणाविदों को वारम्बार नमस्कार दिया । पश्चात् अपने स्वामी द्वारा भेजी हुई बस्तुनों को भगवान को भेंट करके कहा-पूज्यपाद मेरे स्वामी अयोध्यापुरि के महाराज जयसेन ने आपकी गति और प्रेम मे बाधित होकर प्रापको पवित्र सेवा में अपने अनेकानेक विनयप्रणाम के अनन्तर से उत्तमोतम वस्तुर भेंट करने के लिए मुझे भेजा है अाप इन्हें स्वीकार कर योग्य सेवा से उनके हृदय को पावन कोजिए। भगवान जयसेन की सेवा से बहुत संतुष्ट हुए। कुशल प्रश्न के अनन्तर दून से पूछा--प्रच्छा ये बताओ कि अयोध्या कैसी संपतिशाली और सुन्दर नगरी है ? तब दूत विनीत भाव पूर्वक बोला'महाराज ! अयोध्या कौशल देश के अन्तर्गत नाना प्रकार की सर्वश्रेष्ठ संपदाओं से परिपूर्ण बड़े-बड़े ऊँचे विशाल मनोहर गृहों तथा जिन मिन्दरों से सुशोभित ऐसी मुरम्य जान पड़ती है कि मानों निराधार स्वर्ग का एक खंड टूटकर गिर गया हो । जहाँ उपवनों और सरोवरों की अनुपम सुन्दरता को देखकर देवों का मन मुग्ध होता है। इनके अतिरिक्त विशेषता यह है कि इसमें अनेक तीर्थकरों का जन्म हुमा है और अनेकानेक मुनि केवल ज्ञान प्राप्त कर परम धाम मोक्ष पधारे हैं । इसलिए यह महान पबित्र है जिसके दर्शन स्मरण करने से पापों का क्षय होता है।'

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