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णमोकार ग्रंथ
मार माहेन्द्र प्रान्त प्राणत और आरण- अच्युत इन युगलों में पूर्वोक्तवत विधान जानना चाहिए और जिन कल्प युगलों में एक एक ही इन्द्र हैं ऐसे जो ब्रह्म - ब्रह्मोत्तर १. लौव कापिष्ट २. शुक्र-महाशुक्र ३. श्रीर सतार - सहस्वार ४ इन चार युगलों में वसती की अपेक्षा से दो नाम हैं जिस प्रकार यहाँ पर नगर का एक स्वामी होते हुए बसतियों के अलग अलग नाथ होते हैं । उनमें पूर्व दक्षिण और पश्चिम दिशाथों के इकतीस पटलों के चार हजार चार सौ दो श्रणीबद्ध विमान और इकतीस पटलों के इतने ही इन्द्रक विमान - दोनों के संकलन चार सौ दो को तीन हजार परिमित विमान संख्या में से घटाने पर सत्ताईस हजार पांच सौ अठ्ठानवें अवशेष रहें वह भी प्रकीर्णक विमानों की संख्या है इसी प्रकार अन्य कल्पों में जानना चाहिए |
श्रागे इन्द्रक आदि विमानों का विस्तार कहते हैं-
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इन्द्र विमान सर्वे संस्थात योजन श्रेणीबद्ध समस्त असंख्यात योजन और प्रकीर्णक विमान उभय प्रमाण वाले हैं अर्थात कितने ही संख्यात योजन प्रमाण और कितने ही श्रसंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है प्रत्येक कल्प के विमानों की जो संख्या है उस संख्या के पाँचवे भाग प्रमाण संख्यात योजन विस्तार वाले और चार प्रमाण असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । जैसे सौधर्म स्वर्ग में बत्तीस लाख विमान हैं तो बत्तीस लाख का पाँचवा भाग छः लाख चालीस हजार इतने तो संख्यात योजन विस्तार वाले और अवशेष चार भाग पच्चीस लाख साठ हजार विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। अन्य कल्पों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। कल्पोपरि कल्पातीतों में
धो वेयकों में तीन, मध्यम वेधक मे अठारह, उपरिम ग्रैवेयक में सत्र है, नव अनुत्तरों में एक, पंचनुत्तरों में एक विमान सख्यात योजन विस्तार वाले हैं। आगे विमानों की भूमि को बाहुल्यता कहते हैं ।
सौधर्म युगल के विमानों का तल अर्थात भूमियों की मोटाई एक हजार एक सौ इक्कीस योजन, सनत्कुमार माहेन्द्र का एक हजार बाईस योजन, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर का नो सौ तेईस योजन, लाँतव कापिष्ट का श्रासौ चीत्रीस योजन, शुक्र महाशुक्र का सात सौ पच्चीस योजन, सतार सहस्त्रार का छह सौ छब्बीस योजन, आनत प्राणत का पाँच सौ सत्ताईस योजन, आरंण अच्युत का भी पांच सौ सत्ताईस योजन, अधोग्रैवेयक का चार सौ अठ्ठाईस योजन, मध्यम ग्रैवेयक का तीन सौ उनतीस योजन, उर्ध्वं वेक का दो सौ तीस योजन, नव अनुदिश का एक सौ इकतीस योजन और पंचानुत्तर की एक सौ इकतीस योजन, प्रमाण मोटी भूमि है। इन भूमियों के ऊपर ही नगर मंदिर आदि की रचना है। आगे सौधर्म ईशान के विमानों की रचना कहते हैं- सौधर्म - ईशान के विमान कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत ऐसे पांचों वर्णों के, सनत्कुमार माहेन्द्र के कृष्ण कम चार वर्ण के, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर श्रादि कल्ल चतुष्टय के कृष्ण, नील वर्जित तीन वर्ण के, शुक्र यादि कल्प चतुष्टय के कृष्ण, नील रक्त वजित दो वर्ण के और अवशेष मानत आदि पंचानुत्तर पयंत सर्व विमान शुक्ल वर्ण के हैं। आगे विमानों के अधिष्ठान को कहते हैं
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सौधर्म युगल जल के सनत्कुमार युगल पवन के ब्रह्म ब्रह्मोत्तर प्रादि आठ कल्पों के विमान जल और पवन दोनों के और अवशेष श्रानत आदि पंचानुत्तर पर्यन्त के सब विमान केवल प्राकाश आधार पर स्थित हैं । मागे इन्द्र के निवास स्थान का वर्णन करते हैं-छह युगल के छह स्थान बोर अवशेष कल्प चतुष्टय का एक स्थान ऐसे सात स्थानों में अपने अपने युगल के अन्तिम पटल के इन्द्रक
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