Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 350
________________ णमोकार ग्रंथ ३२० स्मरण कर उठे और अकलंक भी पंचनमस्कार मंत्र का ध्यान करने लगे। पास ही बौद्ध गुरु का गुप्तचर खड़ा हुआ था वह उन्हें बुद्ध भगवान का स्मरण करने की जगह जिन भगवान का स्मरण करते देखकर बौद्ध गुरु के पास ले गया और गुरु से उसने प्रार्थना की प्रभो ! प्राज्ञा दीजिये कि इन दोनों धूर्तों का क्या किया जाए। ये ही जैवी हैं । यह सुनकर वह दुष्ट बौद्ध गुरु बोला- इस समय रात बहुत है अतएव इन्हें ले जाकर कारागार में बन्द कर दो। अर्द्धरात्रि व्यतीत हो जाने पर इनका धराशयी बना देना अर्थात् मार डालना उस गुप्तचर ने इन दोनों भाइयों को ले जाकर कारावास में बन्द करवा दिया | अपने पर एक महाविपत्ति आई हुई देखकर निकलंक ने बड़े भाई से कहा- 'भैया ! हम दोनों ने इतना कष्ट उठा कर तो विद्या प्राप्त की, पर बड़े दुःख की बात है कि उसके द्वारा हम कुछ भी जिनधर्म को सेवा न कर सके और एकाएक हमें मृत्यु का सामना करना पड़ा। भाई की दुखभरी बात को सुनकर महाघीर वीर कलंक ने कहा- 'प्रिय भ्राता ! तुम बुद्धिमान हो, तुम्हें भय करना उचित नहीं । घबराओ नहीं। अब भी हम अपने जीवन की रक्षा कर सकते। देखो मेरे पास यह छत्री है इसके द्वारा अपने को छिकर हम लोग यहां से निकल चलते हैं और शीघ्र ही अपने स्थान पर जा पहुंचते हैं ।' यह विचार कर वे दोनों भाई वहाँ से गुप्तरीति से निकल गये और पवन के समान तीव्र गति से गमन करने लगे । इधर जब अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी और बौद्ध गुरु की याज्ञानुसार जब इन दोनों भाईयों के मारने का समय आया तब उन्हें पकड़ लाने के लिए सेवक लोग भेजे गये पर जब वे बन्दीगृह में जाकर उन्हें देखते हैं तो वहाँ उनका पता ही नहीं था। उन्हें उनके एकाएक लुप्त हो जाने से बड़ा विस्मय हुआ । पर वे क्या कर सकते थे। उन्हें उनके कहीं ग्राम पास ही छुपे रहने का संदेह हुआ उन्होंने आस-पास, वन, उपवन, खण्डर, वापिका, कूप, पर्वत, गुफा, वृक्षों के कोठर आदि सब एकएक 'करके बुद्ध डाले । परन्तु उनका कहीं पता न चला। उन पापियों को तब भी तो संतोष नहीं हुआ । तब उनके मारने की इच्छा से अश्वारूट होकर उन दुष्टों ने यात्रा की। उनकी दयारूपी केन कोष रूपी दावानलाग्नि से खूब झुलस गई थी इसीलिये उन्हें ऐसा दुष्कर्म करने को बाध्य होना पड़ा। दोनों भाई भागते जाते थे और पीछे फिर-फिर कर देखते जाते थे कि कहीं किसी ने हमारा पीछा तो नहीं किया पर उनका सन्देह ठीक निकला। निकलंक ने दूर तक देखा तो उसे श्राकाश में धूल उड़ती हुई दीख पड़ी । उसने बड़े भाई से कहा - "भैया हम लोग जितना कुछ करते हैं, वह सब निष्फल हो जाता है । जान पड़ता है देव ने हम से पूर्ण शत्रुता बांधी है। खेद है कि परम पवित्र जिन शासन की हम लोग कुछ भी सेवा न कर सकें और मृत्यु ने बीच ही में प्राकर हमको धर दबाया। भैया ! देखो तो पापी लोग हमें मारने के लिए पीछा किये चले ग्रा रहे हैं। अब रक्षा होना असम्भव है। हाँ, मुझे एक उपाय सूझ पड़ा है और उसे आप करेंगे तो जैन धर्म का बड़ा उपकार होगा । याप बुद्धिमान हैं एक संस्थ हैं। आपके द्वारा जिन धर्म का खूब प्रकाश होगा। देखते हैं वह सरोवर है उसमें बहुत से कमल हैं: श्राप जल्दी जाइये और तालाब में उतरकर कमलों में अपने को छुपा लीजिये । जाइये, शीघ्रता कीजिये । देरी का काम नहीं है । शत्रु पास पहुंचे आ रहे हैं प्राप मेरी चिंता न कीजिये। मैं भी जहां तक बन सकेगा जीवन की रक्षा करूँगा और यदि मुझे अपना जीवन भी देना पड़े तो मुझे उसकी कुछ उपेक्षा नहीं जबकि मेरे प्यारे भाई जीवित रहकर पवित्र जिनशासन की भरपूर सेवा करेंगे। आप जाइये। मैं भी अब यहाँ से भागता हूं।" अकलंक के नेत्रों से भाई की दुःखभरी बात सुनकर अश्रुधारा बहने लगी । उनका हृदय भ्रातृ प्रेम से भर आया। वे भाई से एक अक्षर तक भी न कह सके कि निकलंक वहाँ से

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