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णमोकार ग्रंथ
परिमित राज्य को भोगते हुए उसने एक समय अपने स्थान मंडप में बैठे हुए मंत्रिगणों से पूछा -भो मंत्रियो ! कहो कि इस समय सर्व मनुष्य मेरे अधीन हैं अर्थात् वशीभूत हैं। मेरी श्राज्ञा से रहित स्वतंत्र तो कोई नहीं हैं ना ?
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मन्त्रियों ने कहा - 'हे नाथ ! इस समय सर्व मनुष्य प्रापकी श्राज्ञा का प्रतिपालन करते हैं, एक जैन दिगम्बर मुनि ही ऐसे हैं जो आपके शासन-पालन से विहीन हैं ।'
तब कल्की ने कहा – 'वह नग्न दिगम्बर मुनि कैसे हैं, कहाँ रहते हैं और क्या करते हैं ?
यह सुनकर मंत्रीगण प्रधान ने कहा- 'महाराज ! वे मुनि वन में वास करते । धन, धान्य, वस्त्र, आभूषण आदि से रहित हैं । समस्त संसार सम्पदा को तृणवत् तुच्छ समझते हैं। यहाँ तक कि अपने शरीर से भी निष्य हैं। भोजन के समय श्रवकी के घर शास्त्रोक्त निक्षावृत्ति के अनुसार निरन्तराय प्राशुक ग्राहार ग्रहण कर लेते हैं। वे किसी के शासन में नहीं रहते केवल जिन शासन के ही प्रतिपालक होते हैं।' यह सुनकर राजा ने अपने मंत्रियों से कहा- मैं उनकी इस स्वतंत्रता को सहन करने में असमर्थ हूं अतएव आज ही से उन निर्ग्रन्थों के पाणिपात्र में दिया हुआ प्रथम ग्राम शुल्क श्रर्थात् कर रूप में लिया जाया करे 1
मंत्रियों सहित राजा के ऐसा नियम नियत करने पर उनके नियोगी मुनिराजों के आहार के समय ऐसा ही करने लगे। तब मुनिराज भोजन में अन्तराय जानकर वन में वापिस लौट गए। तब सुकुमारों के स्वामी चमरेन्द्र ने इस कल्कीकृत मुनियों के भोजन समय अंतराय करना आदि अत्याचार जानकर उसके सहन करने में असमर्थ होकर कल्को ( चतुर्मुख राजा ) को मस्तक रहित कर दिया ग्रतः वह अपध्यान से मर कर प्रथम नरक में एक सागर आयु का धारक नारको हुआ। तदनन्तर कल्की का पुत्र प्रजितंजय सुरेन्द्र के भय से अपनी स्त्री चेलका का साथ लेकर चमरेन्द्र की शरणागत को प्राप्त हुआ और उसका नाना प्रकार से विनय अनुनय किया। जिनधर्म का अतिशय माहात्म्य देखकर अपने हृदय को मिथ्यात्व के परित्यागपूर्वक सम्पकवरून रत्न से विभूषित किया। इस प्रकार प्रति हजार वर्ष एक कल्की और उनके अवान्तर एक-एक उपकल्की ऐसे इक्कीस हजार वर्ष परिमित पंचमकाल में बीस कल्की और इक्कीस उपकल्कियों के हो चुकने पर पंचम काल के अन्त में सद्धर्म का नारक अन्तिम ( इक्कीसवां ) जलमय नामक कल्की होगा । तत्समय चतुविध संघ में से इन्द्रराज नामक भाचार्य के शिष्य- १. वीरांगद मुनि, २. सर्व श्री आर्यिका ३. अग्निला नामक श्रावक और ४ फाल्गुसेना श्राविकाइन चारों का सद्भाव रहेगा। इनकी स्थिति साकेत नगरी होगी ।
ये मुनि आदि चारों दुःखम काल के तीन वर्ष साढ़े आठ महीने अवशेष रहने पर कार्तिक कृष्ण अमावस्या के पूर्वान्ह समय में स्वाति नक्षत्र का योग होने पर पूर्वोक्त प्रकार से मुनि को पहला ग्रास ग्रहण न करने देने पर तीन दिन का सन्यास धारण कर पहले वोरांगद मुनि तत्पश्चात् अग्निला श्रावक सर्व श्री नायिका और फाल्गुसेना नामक श्राविका ये चारों साम्यभाव पूर्वक प्राण विसर्जन कर समीचीन जिनधर्म के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में जाएंगे। वहाँ मुनिराज तो एक सागर श्रायु के धारक और अवशेष श्रायिका, श्रावके, श्राविका साविक अल्प प्रायु के धारक होंगे। उसी दिन के आदि, मध्य अन्त काल में क्रम से धर्मराजा और अग्नि से भरत क्षेत्र से प्रभाव होगा । सर्व मनुष्य धर्म, देश, कुल तथा राजनीति मर्यादा रहित हो जाएंगे और वस्त्रादि रहित कपिवत् नग्न हुए फल-फूल आदि से क्षुधा शान्त करेंगे क्योंकि धर्म के आधारभूत मुनि श्रावक के प्रभाव से धर्म का मसूरकुमारेन्द्र द्वारा नृपति का बात होने
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