Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 364
________________ णमोकार मंथ ३४५ से राजा का प्रौर कालदोष के पुद्गल द्रव्य के प्रतिरक्षा परिणमन होने से अग्नि का लोप हो जाएगा इसीलिए अग्नि द्वारा बने पदार्थों का समय होगा जिसमा जीन फर ह्यादि से क्षुधा शान्त करेंगे । इस काल के आदि में मनुष्यों का शरीर साढ़े तीन विलस्त और परमायु बोस बर्ष प्रमाण होगी। दिनों-दिन बल, काय, आयु का ह्रास होते रहने से दुःखम काल के अन्त में किंचित् न्यून एक हाथ का शरीर और सोलह वर्ष परमायु रह जाएगी। इस काल में जो जीव उत्पन्न होंगे वे नरक तथा तिर्यच गति से ही पाएंगे और निरन्तर अशुभ कर्म ही करेंगे और फिर इन प्रशुभ क्रियाओं के परिपाक से भविष्य में नरक या तिर्यंच गति को ही प्राप्त होंगे। कालौतर में कम बुष्टि तथा अनावृष्टि होने से भूमि रक्ष और विषम हो जाएगी जिससे भूमि सम्बन्धी उपज मष्ट होगी । तब क्षुधा से पीड़ित हुए मनुष्य मत्स्य श्रादि जलचर जोवों का प्राहार कर क्षुधा पूर्ण करेंगे । इस प्रकार महा दुःखकर दुःखमा दुःखमा काल के व्यतीत होने पर अन्त में पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि को चूर्ण करती हुई संवर्तक नामक पवन अपने तीव्र वेग से स्वतंत्र अपेक्षा दिशात्रों के अन्तपयन्त परिभ्रमण करेगी जिसके प्रभाव से सर्वप्राणो मुच्छित होकर मरण को प्राप्त होंगे। उस समय गंगा, सिन्धु नदी की बेदी, क्षुद्र विल और विजया पर्वत की गुफाओं में उनक निकटवर्ती मनुष्य आदि पवन के भय से स्वतः प्रवेश करेंगे। तत्पश्चात् उन प्रविष्ट हुए मनुष्य युगल प्रभृति पुष्कल (बहुत से जीवों को दयावान् विद्याधर अथवा देव निविघ्न बाधारहित स्थान में पहुंचा देंगे जिससे वे अपनी जोवनलीला को सुख से व्योतत कर सकें । प्रथानन्तर यहाँ पर (१) पवन, (२) अत्यन्त शोत. (३) क्षाररस, (४) विष, (५) कठोर अग्नि, (६) रज, (७) धूम (धुप्रां) इस प्रकार सात रूप परिणमन पुद्गलों की वर्षा नात-सात दिन अर्थात् समस्त (४६) दिन पर्यन्त होगी जिससे अवशेष रहे जीव भी नष्ट हो जाएंगे । विप, अग्नि की वर्षा से एक योजन पर्यन्त नीचे को पृथ्वी चूर्ण हो जाएगी। तत्पश्चात् नीचे से और चित्रा नामक समभूमि प्रगट होगी। इस प्रकार दस कोडाकोड़ी सागर को अवधि वाले अवपिणी काल के व्यतीत होने के पश्चात् उसपिणी के प्रति दुःखमा नामक काल का प्रारम्भ होता है । उसको प्रादि में प्रजा की वृद्धि के लिए जल दुग्ध, धृत, अमृत, रस आदि शांतिदायक पदार्थों की सात-सात दिन तक पूर्वोक्त प्रकार से वर्षा होती है जिससे अग्नि प्रादि जनित पातप व रुक्षता को तजकर पृथ्वी सचिक्कणता धारण करती है। तब बेल, लता, गुल्म, तृण आदि उत्पन्न होते हैं । धान्य प्रादि को उत्पत्ति भी होने लगती है। तब गंगा, सिन्धु नदियों के तीर बिल प्रादि में तथा विजया की गुफाओं में जो जीव पहले चले गए थे वे अब वहाँ से निकलकर पृथ्वी के शीतल सुगंध रूप दूत के द्वारा बुलाए हुए भरस क्षेत्र में प्राकर निवास करते हैं और फिर क्रम से जीवों के आयु, काल, बल, वीर्य प्रादि की और प्रजा को वृद्धि होने लगती है। दुःखमा काल के प्रारम्भ होते हुए मनुष्यों को प्रायु बीस वर्ष और साढ़े तीन विलस्त ऊँचा शरीर होगा । इक्कीस हजार वर्ष परिमित छठे काल (उत्सर्पिणी के प्रथम काल) के व्यतीत होने के अनन्तर पाँचवें काल के बीस हजार वर्ष व्यतीत होकर एक हजार वर्ष म्यतीत होकर एक हजार वर्ष शेष रह जाने पर प्रकर्ष बुद्धि, बल, वीर्य के धारक मनुक्रम से (१) कनक, (२) कनक प्रभ, (३) कनकराज (४) कनकध्वज (५) कनकपुंगव (इन पांच का वर्ण सुवर्णसम होगा) (६) नलिन (७) नलिनप्रभ, (८) नलिन राज, (९) नलिनध्वज, (१०) नलिन पुगव, (११) पद्म, (१२) पद्य प्रभ, (१३) पद्म राज; (१४) पद्मध्वज, (१५) पम पुंगव और (१६) महापद्म ऐसे नामधारक सोलह कुलकर महान धर्मात्मा, नीति निपुण, प्रजाहितषी क्षत्रिय आदि कुलों के प्राचार के प्ररूपक तथा अग्नि के द्वारा अन्न

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