Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 380
________________ णमोकार प्रथ सारांश यह है कि शरीर धारी जीवों के जो तीन परिणाम हैं उन्हें कापोन लेश्या, उनसे भी अधिक तीन परिणामों को नील लेश्या तथा सबसे तीव्र परिणामों को कृष्ण लेझ्या समझना चाहिए । इसी प्रकार मंद परिणामों को पीत लेश्या, उनसे भी मंद परिणामों को पन लेश्या और सबसे अधिक मंद परिणामों को शुक्ल लेश्या रामझना चाहिए। ये लेश्याय प्रशस्त और प्रशस्त भेद से दो प्रकार की हैं। इनमें से आदि को कृ ण, नौल और कायोत तीन लेश्या प्रशसा हैं । इनका फल निष्कृष्ट है । ये संसार परिभ्रमण को कारण और नरक तिर्थच गति की मूल हैं और अन्त की पीत, पद्म तथा शुक्ल-. ये तीन प्रशस्त्र लेख्यायें हैं इनका फल उत्तम है । ये सर्व मोक्ष सुख की मूलक हैं । जब पारमा के उत्तरोसर संक्लेश परिणामों की वृद्धि होती है । तब यह अात्मा बामशः कापोत, नील, कृष्ण. इन तीन अप्रशम्न लेश्यानों के जघन्य तीव्र) मध्यम तीव्रतर) और उनम (लीनतम) अंशों को प्राप्त होता चला जाता है और जब उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणामों बो वृद्धि होती है तब यह प्रात्मा पीन, पद्म शुक्ल इन तीन लेश्यागों के मंच, मंदतर धार मंदतम अंशों को प्राप्त होता चला जाता है। इन छहों लेश्या वालो के ज उनका ऐसा दृष्टांन जानना चाहिए। कृष्ण प्रादि छहों लेश्या वाले छह पुरुप देशानर को गमन कर रहे थे तो उन्होंने मार्ग में भ्रष्ट होकर वन में प्रवेश किया। वहाँ फलों से पूर्ण किसी एक वृक्ष को देखकर उसके फल भक्षण करने का उपाय अपनी-अपनी लेश्या के अनुसार चितवन करने लगे और अपने-अपने मन के विचारानुमार वचन कहने लगे कृष्ण लेश्या बाला बिचारने लगा और कहने लगा-मैं इस वृक्ष को मूल से उखाड़कर पृथ्वी में पटक के इसके फलों का भक्षण करूगा, नील लेश्या वाला विचारने लगा और कहने लगा-मैं इस वक्ष को स्कंद से काटकर इसके फल खाऊँगा। पीत लेश्या वाला विचारने लगा और कहने लगा मैं इस वक्ष की बड़ी-बड़ी शालाओं को काटकर इसके फलों को खाऊँगा, पीत लेश्यावाला विचारने लगा और कहने लगा-मैं इस वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर इसके फलों को ख़ाऊँगा । पद्म नेश्या बाला विचारने लगा और कहने लगा . में शाखा ग्रादि को न तोड़कर इस वृक्ष के फलों को तोड़कर साऊंगा। शुक्ल लेश्या वाला विचारने लगा तथा कहने लगा-मैं इस वक्ष को वाधा न पहं वाकर वृक्ष से स्वय टूटकर पड़े हुए फलों को उठाकर खाऊँगा। इस प्रकार जो मन पूर्वक बचन आदि की प्रवृत्ति होती है उसे लेश्या का कम वा कार्य कहते हैं। यहाँ पर यह एक केवल दृष्टान्त दिया गया है अतएव इसी प्रकार से अन्यत्र भी समझना चाहिए। प्रब किस-२ गुणस्थान में कौन-2 सी लेश्या होती हैं यह लिखते हैं चतुर्थ गुणस्थान पर्यंत अर्थात् प्रथम के चार गुणस्थानों में प्रत्येक में छह-छह लेश्या हैं। प्रागे के देशविरत, प्रमत्त, विरत और अप्रमत्त विरत इन तीन गणस्थानों में पीत. पद्म और शक्ल शुक्ल ये तीन लेश्या होती हैं। सात से प्रागे के छह गुणस्थानों में अर्थात् अपूर्वकरण से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त केवल एक शुक्ल लेश्या ही होती है और अन्त के पायोग केवली गुणस्थान में लेश्या का सर्वथा प्रभाव हैं। प्रकपाय जीवों के जो लेश्या बतलाई है केवल योग के सद्भावापेक्षा कही है। इति लेश्या वर्णनम् । अथ बैमानिक देव वर्णन :बैमानिक देवों के कल्पोपपन्न व कल्पातीत ऐसे दो भेद हैं जिनमें इन्द्र यादि दश प्रकार के देवों को कल्पना है ऐसे सोलह स्वर्गों को कल्प और उनमें रहने वालों को कल्पवासी (कल्पोपपन्न ) कहते हैं।

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