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णमोकार ग्रंथ
फहरायी । मन्दिर के शिखर पर सुवर्णमय कलश चढ़ाये ओर भी अनेक प्रकार की पूजा प्रभावना की। माता-पिता के नाम को सादृश्यता देखकर बंधु बाधवों ने इनका नाम कुंद कुंद रख दिया ! अपनी वय समान श्रेष्ठी कुमारों के साथ बाल क्रीड़ा करते शुक्ल द्वितीय चन्द्रमा की तरह वे दिनोंदिन बढ़ने लगे। जब ये पाँच वर्ष के हुए तब इनके पिता को इन्हें धार्मिक बिद्या के अध्ययन कराने की रुचि उत्पन्न हुई क्योंकि उस समय विशेष करके आध्यात्मिक विद्या ही सर्वमान्य और उन्नति के शिखर पर थी दूसरे कुन्द श्रेष्ठी स्वत: प्रचुर धनी और प्रतिष्ठित व्यापारी थे इस कारण विशेष आर्थिक इच्छा न होने से व्यापारिक व क्षत्रिय (राजकीय) विद्या पाठन कराना इष्ट न जान कर तत्सामयिक आध्यात्मिक विद्या का प्रतिशेप प्रचार होने से ब्रह्म विद्या काही पठन कराना रुचि कर हमा। एक दिन कुन्दकुन्द कुमार अपने सखानों सहित विनोद क्रीड़ा करते तथा प्रकृति की सुन्दरता को देखते हुए निजे नमर के बन में गये। वहाँ एक नग्न दिगम्बर शांत और क्षमावान मुनि दृष्टिगोचर हुए। साधारण नियम है कि जहां कोई प्राचार्य मुनि अथवा साधु प्राये हों, वहां उनकी वन्दना के लिए आये हुए श्रावक जन भक्ति सहित नमस्कार कर उनकी पूजा करें। इस नियमान्वित वहां बहुत से धावक बैठे हुए थे। कितने ही पूजन कर रहे थे।
इस प्रकार परम शान्त मूर्ति मुनिराज को अवलोकन कर उनके मित्र बों के हृदय कमल मुकुलित हो गए परन्तु इस समय कुदकुद कुमार के मन की और ही अवस्था हुई । मुनिराज को देखते ही उनके मन में स्फुरण हुआ कि धन्य है प्रापको परम शान्त चित्त मुनिराज ! जिस मनुष्य को जगत में पाप जैसे पूज्य होने की इच्छा हो तो उसे निश्चय करके आपके शात गम्भीर उदार एवं सर्वहितकारी सगुणों का अनुकरण करना चाहिए। संसार में उस समय निजात्म के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में सृष्टि पहुँचाने वाले व्यक्ति तो वहुत थे परन्तु स्वात्म कल्याण साधते हुए पर हित करने वाले प्राप जैसे व्यक्ति नियम करके विरले ही हैं अत: आपको इस जगत में धन्यवाद है। ऐसा विचार कर वह कुद-कुद कुमार अन्य सखाओं के साथ घर न जाकर कितने ही मित्रों सहित जो कि उनको घर चलने की प्रतीक्षा करते हुए मार्ग में खड़े हुए थे उनको साथ लेकर मुनिराज के निकट गये वहाँ मुनिराज का तप ध्यान तथा भाव से बना हुमा शांत और गम्भीर रूप अवलोकन करने तथा मुनिराज के मुख द्वारा प्रादर्भत धर्मोपदेश श्रवण से कद-कद कमार का चित्त विरक्त हो गया। उनके चित्तरूपी सरोवर में धर्मोपदेशक रूपी वायु से विविक्त कल्पना रूप अनेक प्रकार की तरंगे उठने लगीं । वे विचारने लगे कि ये सब संसार कदली गर्भवत प्रसार है ये जीव अनादि वर जड़ कर्म के वशीभूत हो माता-पिता, पुत्र, भाई, बन्धु, धन, धान्य, धरनी आदि जितने भी पदार्थ दृष्टि गोचर होते हैं उनमें से स्वेच्छानुकूल परिणमते पदार्थों में राग और प्रतिकूल परिणमते पदार्थों में द्वेष कर इन्हीं के वश हो नाना प्रकार की शुभाशुभ क्रियाए करते हुए उन क्रियाओं के परिपाक से जन्म मरण की परिपाटी में पड़ निज स्वरूप का बिल्कुल विस्मरण कर देते हैं अर्थात इसे अपने स्वरूप का ध्यान कभी स्वप्न में भी नहीं पाता है। निजात्म स्वरूप को प्राप्ति के साधन प्रथम तो निगोदादिक विकल चतुष्क मनोज्ञान शून्य प्राणियों को तो प्राप्त ही नहीं होते। रहे जो अवशेष संशी पंचेन्द्रिय, मनुष्य, नारकी मोर उनमें भी निजात्म स्वरूप के साधन पूर्णतया प्राप्त नहीं होते। एक मनुष्य भव ही संसार समुद्र का किनारा है जिसे पाकर यदि हम प्रयत्नशील होकर अथाह भव सागर से पार होना चाहें तो अल्प परिश्रम से अपना मभीष्ट निर्वाण पद प्राप्त करते हैं।
इस नर जन्म का पाना सन्सार में बहुत दुर्लभ है और जिसमें भी सद्धर्म प्राप्ति दुर्लभ है प्रस