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णमोकार ग्रंथ
काल निकट पाया जानकर निजपट्ट शिष्य कुन्दकुन्द मुनि को पट्टाभिषेक पूर्वक पौष वदी अष्टमी बीर निर्वाण सम्बत् ५३६ को पट्ट परस्थापन कर आप ध्यानस्थ (समाधिस्थ) हो गये। इनका पट्ट उज्जैनी में था । कुन्दकुन्द मुनिराज पट्टाधीश होने के उपरांत पट्टाचार्य कहलाप इनके बहुत शिष्य थे 1 उनमें से मुख्य शिज्य स्याउमास्थानी को दिया हुआ था । कुन्द-कुन्दाचार्य के अनन्तर ये ही पट्टाधीश हुए थे। जिनचन्द्राचार्य के स्वर्गवास होने के पश्चात् कुन्द-कुन्दाचार्य ने उत्तन प्रकार से अपने पद का कर्तव्य पालन किया। धर्मोपदेश और जिनधर्म के प्रचार के लिए अपने शिष्यों को चारों दिशाओं में भेजा जिन्होंने जिनधर्म का पुष्कल प्रसार किया और पाप स्वतन्त्र आत्म कल्याण के लिये दुद्धर तपश्चरण करने लगे । प्रात्मोन्नति के सोपान पर चढ़ते हुए उन्होंने अपनी अनेक कल्पित शंकाओं का समाधान स्वतः प्रात्म निश्चय से किया। उस समय उन्हें शंकाओं के समाधान के लिए विशेष श्रम उठाना पड़ा क्योंकि उस समय अंगपूर्व के ज्ञाता मुनियों का तो बिल्कुल प्रभाव था प्रौर त समय न अवधिज्ञानी मुनियों का ही संघ था अतएव अवशेष हृदयगत शंकामों के निवारण करने के लिए उन्हें कोई साधन न पाकर बड़ा कष्ट हुया पर साथ ही उन्हें एक युक्ति सूझी कि विदेह क्षेत्र में श्री मन्दिर स्वामी शाबन केवली हैं, उनके निकट जाकर अपनी स्वतन्त्र शंकाओं का निवारण करूँ परन्तु साथ ही यह चिता हुई कि उम क्षेत्र में अपना गमन कैसे हो । किसी विद्याधर के विमान की सहायता बिना वहाँ पहुंचना कठिन व असम्भव था--ऐसा विचार कर वहां जाने में निरुपाय हो गुरु के द्वारा कही त्रिपात्रों के अनुसार पंचमहावनादि का उत्तम रीति से पालन करने लगे। उसके बाद कुछ दिनों के अन्तर श्री कुन्द-कन्दाचार्य अकेले विहार करते-करते वारापुरी के बहिरुद्यान में आकर ठहरे और वहाँ दृढ़ चित्त से पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्य और रूपातीत इन चार प्रकार के ध्यान करने लगे । ध्यानस्थ समय उन्होंने अपने मन में थी सीमंधर स्वामी का समवशरण रचकर त्रिकरण शुद्धि से उनको नमस्कार किया। उसके साथ ही पूर्ण ध्यान को प्राबल्या से ये चमत्कार हुश्रा कि विदेह क्षेत्रागत स्थित श्री सीमंधर स्वामी ने कुन्द-कुन्दाचार्य को वहाँ से समवशरण में गंभीर नाद से दिव्य ध्वनि द्वारा 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' ऐसा प्राशीर्वाद दिया।
उस समय समवशरण में विदेह क्षेत्र के चक्रवर्ती पद्मरथ बैठे हुए थे। उन्होंने एकाएक भगवान के द्वारा प्राशीर्वाद दिया हुआ देखकर विस्मित होकर भगवान से सविनय पूछा--"भो भगवान ! यहाँ कोई इस समय नवीन मनुष्य आया नहीं, फिर आपने किसके वास्ते पाशीर्वाद दिया ?" तब भगवान ने अपनी दिव्य ध्वनि से उत्तर दिया--"हे राजन ! इस द्वीप के दक्षिण में भरत क्षेत्र है, वहाँ इस समय विकराल पंचम काल प्रवर्तमान है । उस क्षेत्र की बारापुरी नगरी के वहिरुद्यान में स्थित श्री कुन्दकुन्द कुमार मुनिराज ने ध्यानस्थ हो मुझे नमस्कार किया था। वहां कलिकाल (पंचमकाल) प्रवर्तमान होने से अधर्मी, पाखंडी, ध्यसनी, हिंसक आदि दुष्ट मनोवृत्ति वाले व्यक्ति तो बहुत हैं, संयमो जिन धर्मायी मुनि बहुत विरले हैं, कुलिंगी वहुत हैं । धर्म का दिनों दिन ह्रास होता चला जाता है। अंग पूर्व के पाठी व अवधि शानियों का प्रभाव है अतएव कुन्दकुन्द मुनिराज ने जब अपनी बहुत सी शंकामों का समाधान कठिन जाना तब उन्हें एक युक्ति सूझी कि विदेह क्षेत्र में शाश्वत केवली है, वहाँ जाकर अपनी शंकानों का समाधान किया जाए परन्तु विमानादिक की सहायता विना यहाँ पाने में प्रशक्त हो वहीं ध्यान द्वारा स्मरण कर मुझे नमस्कार किया, उससे मैंने उन्हें प्राशीर्वाद दिया था।"
जिस समय कुन्द-कुन्दाचार्य का उपरोक्त वृत्तान्त श्री मन्दिर मुनि पपरथ चक्रवति से कह रहे थे उस समय वहाँ पर श्री कुन्दकुन्द मुनि के पूर्व भव के युगल भ्राला जो कि परम प्रकर्ष पुण्योदय से प्रायु