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णमोकार प्रम
के अन्तमरण कर उस क्षेत्र में उत्पन्न हुए थे उपस्थित थे। दोनों भ्राता अपने पूर्व भव के सहोदर कुन्दकुन्द मुनिराज का उक्त वृत्तान्त सुनकर उसी समय वहाँ से उठकर विमानारूढ़ हो भरत क्षेत्र में वारा पुर के वहिद्यान में पाये जहाँ पर कुन्द-कुन्दाचार्य तप कर रहे थे। उन्होंने मुनि को देखते ही सभक्ति साष्टांग नमस्कार किया । वे उस समय ध्यानारून थे दूसरे रात्रि का समय था, इस कारण मुनिराज शांत रहे बोले नहीं। उस समय कुन्दकुन्द मुनिराज के निकट एक गृहस्थ स्थित था । उससे उन्होंने कहा- "हम इन मनिराज के पूर्व भव के बन्धु हैं प्रतः भ्रातृ प्रेम वश इनसे मिलने और उन्हें विदेह क्षेत्र में ले जाने के लिए आये हैं पर मुनिराज ध्यानस्थ हैं इसलिए हम जा रहे हैं" इतना कह वे पुनः विमानारूढ़ हो विदेह क्षेत्र में चले गये। प्रातः काल होने पर जब ये तान्त कन्दकन्द मनिराजको विदित हमा उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक श्री सीमंधर स्वामी का साक्षात् दर्शन न होगा तब तक प्राहार का त्याग है-ऐसा दृढ़ नियम करके पुनः पूर्ववत् ध्यानारूढ हो गये। फिर विदेह क्षेत्र के मध्य समवशरण में श्री सीमंधर स्वामी ने उनके प्रति सद्धर्म वृद्धिरस्तु" ऐसा आशीर्वाद दिया। तब फिर पारय चक्रवर्ती ने आर्शीवाद प्रदान करने का कारण पूछा तो श्री सीमंधर स्वामी ने अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा कहा"मैंने जो पूर्व कुन्दकन्द मुनिराज का वर्णन तुमसे कहा था उसे कुन्दकुन्द के पूर्व भव के भ्राता भी बैठे हुए सुन रहे थे। वे तत्काल ही विमानारूढ़ हो उन्हें लेने के लिए भरत क्षेत्र में गये । उस समय वे ध्यानस्थ थे दूसरे रात्रि का समय था अतएव वे मौनालीन रहे। तब वे उन्हें मौन देखकर वहाँ स्थित एक गृहस्थ से अपने श्रागमन का वृतान्त कहकर पीछे लौट पाये।
जब ये वृत्तान्त प्रातःकाल कुन्दकुन्द मुनिराज को विदित हुमा तब उन्हें सुनकर परम आनन्द हुआ और जब तक उन्हें हमारा दर्शन न हो तब तक भोजन का त्याग है ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा कर पुन: पूर्ववत् ध्यानारूढ़ हो मुझे नमस्कार किया है इससे मैंने उन्हीं को आशीर्वाद दिया---ये वृतान्त सुनकर वहाँ स्थित कन्दकन्द मनिराज के दोनों भाई तत्काल पुनः विमानारूढ़ हए और जहाँ कन्दकुन्द मुनि तप कर रहे थे वहाँ भाकर उनको साष्टांग नमस्कार किया । उसके बाद विदेह क्षेत्र में चलने की प्रार्थना की । यह सुनकर मुनिराज को विशेष प्रानन्द हुमा और विमानारूढ़ हो विदेह क्षेत्र की ओर प्रयाण किया। कन्दकुन्द मुनिराज ने प्रयाण करते समय शौच का उपकरण कमण्डल और दया का उपकरण मयूर पिच्छि को भी साथ ले लिए थे । शीघ्रगति से मयूर पिच्छि मार्ग में किसी स्थान पर गिर पड़ी। जब उन्हें मालूम हुआ तब विमान को रोककर यत्र-तत्र बहुत कुछ अन्वेषण किया पर कहीं पता न लगा । तब पिच्छि के बिना तो अनुमित क्रिया जानी जाती इस कारण वे मानसरोवर पर गये। वहाँ गिद्धपक्षी की पड़ी हुई कोमल कोमल पंखों की एक पिच्छि बनाई और तदनंतर विदेह क्षेत्र की ओर प्रयाण किया। मार्ग में हरि क्षेत्र, नाभिगिरी, मेरू आदि पर्वतों को उलांघते हुए विदेह क्षेत्र में जाकर अयोध्यापुरी नगरी के उद्यान में श्री सीमन्धर स्वामी के समवशरण के निकट जा उतरे। उस नगरी के अवलोकन करने के पश्चात् कुन्दकुन्द मुनिराज से उन देवों ने कहा- इस स्थान पर से देव चौथा काल प्रर्वतता रहता है। यहां पर कोई प्राणी दुख का नाम भी अनुभव नहीं करते किन्तु सब सुख रूप रहते हैं। ये अचल क्षेत्र है"-इस प्रकार वहां का संक्षिप्त माहात्म्य वर्णन कर मुनिराज सहित समवशरण के पास गये । कुन्द-कुन्द मुनिराज ईर्यापथ शोधते समवशरण की ओर दृष्टि करते चले तब उन देवों को एक बड़ी भारी चिता हुई–'इस जगह सर्व मनुष्य पांच सौ धनुष ऊँची काय वाले हैं और इनका शरीर चार हाथ का है इससे इनकी कहाँ स्थिति करें ? यदि इन्हें कहीं बैठा ही दिया तो फिर इन पांच सौ धनुष