Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 354
________________ णमोकार नथ नहीं है । किन्तु बुद्ध धर्म को अधिष्ठात्री देवी तारा है। इतने दिनों से वही शास्त्रार्थ कर रही है। संघश्री ने उसकी आराधना कर उसे यहाँ बुलाया है । अतएव कल जव शास्त्रार्थ होने लगे और देवी उस समय जो कुछ प्रतिपादन करे तब आप उससे उसी विषय का फिर से प्रतिपादन करने के लिए कहियं । वह उसे फिर न कह सकेगी तब उसे अवश्य ही नीचा देखना पड़ेगा"-यह कहकर देवी अपने स्थान पर चली गई। अकलंक देब की चिता दूर हुई। वे बड़े प्रसन्न हुए । प्रात:काल हुा । अकलंक देव अपने नित्य कर्म से मुक्त होकर जिन मन्दिर में गए। पूर्ण भक्ति भाव से उन्होंने भगवान की स्तुति की। तत्पश्चात् दे वहां से सीधे राज सभा में पाए उन्होंने महाराज शुभ तुंग को सम्बोधन करके कहा-'राजन इतने दिनों तक मैंने शास्त्रार्थ किया। का यह प्रयोगासा , संघत्री को पराजित नहीं कर सका परन्तु ऐसा करने से मेरा अभिप्राय जिनधर्म के बतलाने का था। वह मैंने बतलाया पर मैं अब इम संवाद का अन्त करना चाहता हूं। मैंने अाज निश्चय कर लिया है कि मैं आज इस संवाद की समाप्ति करके ही भोजन करूंगा"ऐसा कहकर उन्होंने परदे की ओर देखकर कहा--"क्या जैन धर्म के सम्बन्ध में कुछ और कहना बाकी है या मैं शास्त्रार्थ समाप्त करूं?" यह कहकर जैसे ही वे चुर हुए कि परदे की योर स फिर वक्तब्य प्रारम्भ हुना । देवी अपना पक्ष समर्थन कर जैसे ही चुप हुई अकलंक देव ने उसी समय कहा- 'जो विषय अभी कहा गया है उसे फिर कहो वह मुझे ठीक नहीं सुनाई पड़ा।" प्राज अकलंक देव का नया हो प्रश्न सुनकर देवी का साहस एक साथ ही न जाने कहां चला गया । देवता जो कुछ कहते है बह एक ही बार कहत हैं। उसी बात को बह पुनः नहीं कहते । तारा देवी का भी यही हाल हुआ। वह अकलंक देव के प्रश्न का उत्तर न दे सकी अत: उसे अपमानित होकर भाग जाना पड़ा जैस सूर्योदय स रात्रि भाग जाती है । तत्पश्चात् प्रकलंक देव उठे और परदे को फाड़कर उसके भीतर घुस गये वहां जिस घर में देवी का आह्वान किया गया था वह उन्होंने पांव की ठोकर से फोड़ डाला। संधी सरीख जिनशासन के शत्रुओ मिथ्यात्वियों का अभिमान चूर्ण किया । अकलंक के इस विजय और जिन धर्म की प्रभावना ने मदनसुन्दरी और सर्वसाधारण को बड़ा आनन्द हुआ 1 अकलंक ने सब लोगों के सामने जोर देकर कहा-"सज्जनों ! मैंने इस धर्मशून्य संघधी को तो पहले ही दिन पराजित कर दिया था किन्तु इतने दिन जो मैंने देवी के साथ शास्त्रार्थ किया वह केवल जिनधर्म का महात्म्य प्रगट करने के लिए और सम्यक् ज्ञान का लोगों के हृदय पर प्रकाश डालने के लिए था'-यह कह कर मकलंक देव ने इस श्लोक को पढ़ा माहंकार वशीकृते न मनसा, न द्वेषिणा केवलं। नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यतिजमे, कारुण्य मुदयामया ॥ रामः श्री हिमशीसलस्य, सदस्य प्रायोविदग्धात्मनो। बौदोषान्सकलान्यिजिस्य सुगतः पाबनविस्फालितः ।। महाराज हिमशीतल की सभा में मैंने सब बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को ठुकराया। यह न तो अभिमान के वश होकर किया गया और न किसी प्रकार के द्वेष भाव से, किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आ गई इसीलिए उनकी दया से बाध्य होकर मुझे ऐसा करना पड़ा । उस दिन से बौखों का राजा और प्रजा के द्वारा चारों ओर प्रपमान होने लगा, किसी की बौद्ध धर्म पर श्रद्धा नहीं रही, सब उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे। यही कारण है कि बौद्ध लोग यहां से कर विदेशों में जा बसे। महाराज हिमशीतल और प्रजा के लोग जिनशासन को प्रभावना देखकर

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