Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 351
________________ १२८ णमोकारवय भाग खड़ा हुआ 1 लाचार होकर अकलंक को अपने जीवन की नहीं अपितु पवित्र जिनशासन की रक्षा के लिए कमलों में छुपना पड़ा उनके लिए कमलों का प्राश्रय केवल दिखावा था । वास्तव में तो उन्होंने जिसके बराबर संसार का कोई प्राश्रय नहीं हो सकता उस जिनशासन का पाश्रय लिया था। निकलंक भाई से विदा लेकर तेजी से भाग रहा था कि मार्ग में उसे एक धोवी कपड़े धोता हुआ मिला। धोबी ने नाकाश में धूल की छटा छाई हुई देखकर निकलंक से पूछा-"यह क्या हो रहा है और तुम ऐसे जी छोड़कर क्यों भागे जा रहे हो ?" निकलक ने कहा-"पोछे शत्रुओं को सेना पा रही है, उसे जो मिलता है उसे ही वह मारती है इसीलिए मैं भागा जा रहा हूं।" यह सुनते ही धोबी अपने कपड़े वगैरह सब छोड़कर निकलंक के साथ भाग निकला वे दोनों बहुत भागे पर कहाँ तक भाग सकते थे। अन्त में सवारों ने उन्हें प्रा ही पकड़ा और उसी समय अपनी चमचमाती हुई तलवार से दोनों का मस्तक काटकर उन्हें वे अपने स्वामी के पास ले गए। सच है पवित्र जिनधर्म, अहिंसाधर्म से रहित मिथ्यात्व को अपनाये हुए उन पापी लोगों के लिए ऐसा कौन-सा महापाप बाकी रह जाता है जिसे वे नहीं करते जिनके हृदय में जीव मात्र को सुख पहुंचाने वाले जिनधर्म का लेश मान भी नहीं है उन्हें दूसरों पर दया भी कसे पा सकती है उधर शत्रु भी अपना काम कर वापिस लोटे मोर इधर प्रकलंक अपने को सुरक्षित समझकर सरोवर से निकले और निडर होकर आगे बढ़े। वहां से चलते-चलते वे कुछ दिन के मनन्तर कलिंग देशांतर्गत रत्नसंचयपुर नामक नगर में पहुंचे । उस समय वहाँ के राजा हिमशीतल थे। उनकी रानी का नाम मदनसुन्दरी था । वह जिन भगवान की बड़ी भक्त थो। उसने मोक्ष, स्वर्ग और सुख के देने वाले पवित्र जिनधर्म की प्रभावना के लिए अपने बनवाये हुए जिनमन्दिर में फाल्गुण शुक्ल अष्टमी के दिन से रथयात्रोत्सव का प्रारम्भ करवाया था। उसमें उसने बहुत द्रव्य व्यय किया वहाँ संघश्री नामक बौद्धों का प्रधान प्राचार्य रहता था। उसे महारानी का कार्य सहन नहीं हुमा । उसने महाराज से कहकर रथयात्रा उत्सव रुकवा दिया और साथ ही वहाँ जिनधर्म का प्रचार न देखकर शास्त्रार्थ के लिए विज्ञापन भी निकाल दिया। महाराज ने अपनी महारानी से कहा-"प्रिय ! जब तक कोई जैन विद्वान बौद्ध गुरू के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव न फैलावेगा तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है।" महाराज की बातें सुनकर रानी को बड़ा दुःख हुमा पर कर ही क्या थी? उस समय कौन उसकी भाशा पूरी कर सकता था? बह उसी समय जिन मन्दिर गई और वहाँ मुनियों को नमस्कार करके पूछने लगी-'प्रभो ! बौद्ध गुरु ने मेरी रथयात्रा को रुकवा दिया है। वह कहता है कि पहले मुझसे शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर लो फिर रथोत्सव करना। बिना ऐसा किये उत्सव न हो सकेगा इसीलिये मैं आपके पास प्राई हूं। बतलाईये कि जैन दर्शन का अच्छा विद्वान कौन है जो बौद्ध गुरु को पराजित कर मेरी इच्छा पूर्ण करे।" यह सुनकर मुनि बोले-"इघर पास-पास तो कोई ऐसा विद्वान नहीं दिखता जो बौद्ध गुरु के सन्मुख शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त कर सके परन्तु मान्यवेट नगर में ऐसे विद्वान अवश्य है । उनके बुलवाने का पाप प्रयत्न करें तो सफलता प्राप्त हो सकती है ।" रानी ने कहा -"वाह ! प्रापने बहुत मच्छी बात कही, सर्प तो शिर के पास फुकार रहा है और थाप कहते हैं कि गरुड़ अभी दूर है । भला उससे क्या सिद्धि हो सकती है ? अस्तु जान पड़ा कि पाप लोग इस महाविपत्ति का सद्यः प्रतीकार नहीं कर सकते दैव को जिनधर्म का पतन कराना ही इष्ट मालूम होता है । जब मेरे पवित्र धर्म की दुर्दशा होगी तब मैं ही जीवित रहकर क्या कहेंगी?"

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