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णमोकार मंथ
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की व्याख्या बनाई। उसमें महाबंध का संक्षेप भी सम्मिलित कर दिया । पश्चात् कपाय प्राभृत पर प्राकत भाषा में साठ हजार और केवल महाबंध खंड पर पाठ हजार पांच श्लोक प्रमाण दो व्याख्यायें रची। कुछ समय पीखे चित्रकूट पुर निवासी श्रीमान् एलाचार्य सिद्धान्त तत्वों के ज्ञाता हए । उनके समीप वीरसेनाचार्य ने समस्त सिद्धान्त का अध्ययन किया और उपरितम (प्रथम के) निबंधनादि साठ जिलारों को लिखा । पचान गर भगवान की प्राज्ञा से चित्रकूट छोड़कर वेवाट ग्राम में पहुँचे। वहाँ मानतेन्द्र के बनाए हुए जिनमंदिर में बैठकर उन्होंने व्यास्याप्रज्ञप्ति देखकर पूर्व के छह खंडों में से उपरितम बंधनादिक अठारह अधिकारों में सत्कर्म नाम का मन्य बनाया और छह खंडों पर बहत्तर हजार इलोकों में संस्कृत प्राकृत भाषा मिश्रित धवल नाम की टीका वनाई। फिर कषाय प्राभूत की चारों विभक्तियों (भेदों) पर जयधवल नाम की बीस हजार श्लोक परिमित टीका लिखकर स्वर्गलोक को पधारे । उनके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्री जयसेन गुरु ने चालीस हजार श्लोक और बनाकर जयधवल टीका को पूर्ण किया । जयधवल टीका सब मिलाकर साठ हजार श्लोकों में पूर्ण हुई। इस प्रकार श्रतोत्पत्ति का विवरण लिखकर इस विषय को समाप्त करते हैं।
यह स्मरण करने योग्य है कि ये उन्हीं परोपकारो महात्माओं के परिश्रम का फल है जो उनके द्वारा निर्मित सिद्धान्त ग्रन्थों के प्रभाव से प्राज संसार में हमारे जैन धर्म का अस्तित्व पाया जाता है जिनमें से असंख्य ग्रंथों का तो अन्यायी राजाओं के शासन काल में तथा अन्याय मतों के विकास समय में प्रायः लोप हो गया । अगणित ग्रन्थों के नष्ट हो जाने पर भी पत्र भी ऐसे-ऐसे संस्कृत व प्राकृत भाषा के काव्य कोष व्याकरणादि न्याय तथा तत्त्वज्ञान के प्ररुपक अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थ रत्न उपलब्ध होते हैं जिनके ज्ञाता विद्वान वर्तमान समय में विरले अर्थात् इने-गिने ही पाए जाते हैं। हमें अपने उन पूर्वज महा परोपकारी ऋषि महर्षियों का कृतज्ञतापूर्वक भक्ति व श्रद्धा के साथ भजन, स्तवन तथा गुणानुवाद करना चाहिए।
भारतवर्ष में एक मान्यखेद नाम का नगर था । उसके राजा शुभत ग थे और उनके मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था । पुरुषोत्तम की गृहणी पावती थी। उसके दो पुत्र हुए, उनके नाम थे, अकलंक और निकलक । वे दोनों भाई बहे बुद्धिमान और गुणी थे। एक दिन की बात है कि अष्टान्हिका पर्व की अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम और उसकी पत्नी बड़ी विभूति के साथ चित्रगुप्त मुनिराज वी वन्दना करने को गए। साथ में दानों भाई भो गए। मुनिराज की वन्दना करके इनके माता-पिता ने पाठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लिया और साथ में विनोद वश अपने दोनों पुत्रों को भी दिलवा दिया। कभी-कभी सत्पुरुषों का विनाद भी सत्यमार्ग का प्रदर्शक बन जाता है। अकलंक और निकलंक के चित्त पर भी पुरुषोत्तम के दिलवाए गए व्रत का ऐसा ही प्रभाव पड़ा। जब ये दोनों भाई युवावस्था में पदार्पण करने लगे तब कछ दिनों के पश्चात् पुरुषोत्तम ने अपने पुत्रों के व्याह को प्रायोजना की तब दोनों भाइयों ने मिलकर अपने पिता से निबेदन किया- पिता जी ! इतना भारी प्रायोजन और इतना परिश्रम प्राप किस लिए कर रहे हैं ?' प्रपन्ने भोले-भाले पुत्रों का मधुर संभाषण सुनकर पुरुषोत्तम ने कहा-'ये सब प्रायोजन तुम्हारे व्याह के लिए हैं। पिता का उत्तर सुनकर दोनों भाइयों ने फिर कहा-"पिता जी! अब हमारा व्याह कैसा ? मापने तो हमें ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया था ।' पिता जी ने कहा-'नहीं। वह तो केवल विनोद से दिया गया था। तब उन बुद्धिमान भाइयों ने कहा 'पिता जी ! धर्म और व्रत में विनोद कसा, यह हमारी समझ में नहीं माया । अच्छा प्रापमे विनोद से ही दिया सही तो अब उसके पालन करने भी हमें