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णमोकार प्रय
हुआ? ज्ञात होता है कि अवश्य ही हमारी साधना में कोई भूल हुई है ' तब उन्होंने मन्त्र व्याकरण की विधि से न्यूनाधिक वर्षों के क्षेपने और अपचय करने के विधान से मंत्रों को शुद्ध करके फिर जपास बार दो देवियों ने केयुर (भुजा पर पहनने का प्राभरण, हार, नुपूर (विछुवे), कटक (करण) और कटिसूत्र (करधनी) से सुसज्जित है दिव्य रूप धारण करके दर्शन दिया और समक्ष उपश्थिा होकर कहा-'कहिए किस कार्य के लिए हमें आज्ञा है ? यह सुनकर मुनियों ने कहा-हमारा ऐहिक और पारलीकिक ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे तुम सिद्ध कर सको। हमने तो केवल गुरुदेव की ग्राज्ञा में मनों की सिद्धि की है ।' मुनियों का अभीप्ट सुनकर देवियो उसी समय अपने स्थान को चलो गई।
इस प्रकार से विद्यासाध करके संतुष्ट होकर उन दोनों मुनियों ने गुरुदेव के समीप आकर अपना समस्त वलान्त यथातथ्य निवेदन किया। उसे सुनकर श्री धरसेनाचार्य ने उन्हें अतिशय माघार अप्रतिम बुद्धिशाली समझकर शुभ तिथि, नक्षत्र और गुभ समय में ग्रंथ का व्यापान करना प्रारम् किया और वे मुनि भी ग्रालस्य छोड़कर गुरु विनय तथा जान विनय की पालना करते हा अध्ययन करने लगे। कुछ दिन के अनन्तर पापाढ़ शुक्ल ग्यारस को विधिपूर्वक ग्रंथ समाप्त हुआ। उस दिन देवों ने प्रसन्न होकर प्रथम मनि की दंत पक्ति को जो विषम रूप थी कुन्द के पूषों सगरमा कर दिया गौर उनका पुष्पदंत यह मार्थक नाम रख दिया। इसी प्रकार से भून जाति के देवों ने हितोव मनि की ये गाद. जयघोष तथा गंध, माल्य, धूप ग्रादि से पूजा करके उनका भी सार्थक नाम भूमपति रख दिया 1 गुमर दिन गुरु ने यह सोचकर कि --मेरी मृत्यु का समय निकट है अत: यदि ये मेरे समी' रहग ना को होंगे'– उन दोनों को कुरीश्वर भेज दिया । तब वे नौ दिन चलकर उस नगर में पहुंच गए। यहा ग्राबाई कृष्ण पंचमी को (दक्षिण देश में पहले शुक्ल पक्ष और पीछे कृष्ण पक्ष प्राता है) योग ग्रहण करके उन्होंने वर्षाकाल समाप्त किया और पश्चात् दक्षिण की ओर विहार किया।
कुछ दिन पश्चात् वे दोनों महात्मा करहाट नगर में पहुंचे । यहाँ श्री पुष्पदंन मुनि ने अपने जिनपालित नाम भानजे को देखा और उसे जिनदीक्षा देकर वे अपने साथ में लेकर बननाम दन में जा पहुँचे। इधर भूतपति द्रविड़ देश के मथुरा नगर में पहुंच गए। करहाट नगर मे हो उक्त दोनों मुनियों का साथ छूट गया । श्री पुष्पदंत मुनि ने जिनमालित को पढ़ाने के लिए विचार किया कि कम प्रकृति प्राभृत की छह खंडों में उपसंहार करके ग्रंथ रूप रचना करनी चाहिए और इसीलिए उन्होंने प्रथम ही जीवस्थानाधिकार की जिसमें गणस्थान, जीव समास प्रादि वीस प्ररूपणापों का वर्णन है, बहुत उत्तमना के साथ रचना की फिर उस शिष्य को सौ सूत्र पढ़ाकर श्री भूतबलि मनि के पास उनका अभिप्राय जानने के लिए अर्थात् यह जानने के लिए कि वे इस कार्य के करने में सहमत है अ-बबा नहीं, और यदि हैं तो जिस रूप में रचना हुई है, उसके विषय में उनको क्या सम्मति है-भेज दिया। उसने भूतबलि महर्षि [भूतबील भूतपति महाष का हो अपर नाम था) के समाप जाकर वे प्ररूपणा सुत्रसूना दि कर उन्होंने श्री पुष्पदंत मुनि का षखंड रूप नागम रचना का अभिप्राय जान लिया और अब लोग दिनोंदिन अल्पायु और अल्पमति होते जाते हैं-ऐसा विचार कर उन्होंने स्वयं पांच खंडों में पूर्व सूत्रों सहित छह हजार श्लोक विशिष्ट द्रव्य प्ररुपणाधिकार की रचना की और उसके पश्चात् महाबंधनामक छठे खंड को तीस हजार सूत्रों में समाप्त किया ।पहले पाँच खंडोंगाम ये हैं
(१) जीवस्थान, (२)क्षल्लकबंध, (३) बंधन्वामित्व, (४) भाव वेदना और (५) वर्गणा । श्री भूतबलि मुनि ने इस प्रकार षट्खंडागम की रचना करके उसे मसद्भाव स्थापना के द्वारा