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णमोकार प्रय करने प्रारम्भ कर दिए। उससे जहाँ तक बन सका उसने उन्हें खूब कष्ट पहुँचाया। पपनो विक्रिया शक्ति से प्रमावस्या की पद्धं रात्रि के समान थोर अंधकार करके मूसलोपमधारा से मेघ वर्षा को । बादलों की गरज पौर विद्युत की सड़क से भयंकर शब्द होने लगे।
प्रचंड वेग से झंझावात (बरसाती शीतल पवन) घलने लगी । प्रसीम वर्षा के जल से समस्त बन ममुद्रवत् जलमय मालूम होने लगा। परन्तु भगवान पापवंनाथ जन उपद्रवों से रंचमात्र भी विचचित नहीं हए। वे जिस प्रकार ध्यान में स्थित पे उसी प्रकार से मंजन गिरि के समान स्थित रहे। यह ठीक ही है-यदि प्रचंड प्रकाल के लय समान वायु भी क्यों न चले पर क्या वह मेरु पर्वत को बलायमान कर सकती है, कदापि नहीं। इसके अतिरिक्त उसने भौर भी अनेक प्रकार के उपद्रव किए । यथा :
छप्पय किलकलंस लाल काल काजल छविच्छज्याहि ।
भौं कराल विकराल भाल मद गल जिमगजहि । मुमाल गल परे लाल लोचन निडरहि जन ।
मुख फुलिंग करहिं निरक्य धुमि हन हन । इस विधि भनेक कुरमेष पर कमठ जीव उपसर्ग किए। तिहं लोक बंब जिन चन्द्र प्रसिधूल मल निज शीश लिय ॥१॥ इत्यादि उस्पात सन । वृथा भए प्रति घोर । जैसे मानक वीपको। लगे न पचन कोर ।।२।।
उनके तप के प्रभाव से जिन भक्त धरणेन्द्र का आसन कम्पित हुमा प्रदधिबल से भगवान पर उपसर्ग हुभा जान वह तत्काल पद्मावती सहित वहाँ पाए, जहाँ भगवान ध्यानारुढ़ स्थित थे। धरणेन्द्र ने प्राकाश से भीषण मेष पाते हुए देख भगवान के ऊपर अपना फण मंडप छत्रवत् छा लिया जिससे वर्षा कुत बाधा दूर हुई। पद्मावती पूर्वजन्म कृत उपकार को स्मरण कर सभक्ति प्रदक्षिणा दे उनके चरणारविदों को बारम्बार नमस्कार करने लगीं। नागराज को माया हुमा जान वह ज्योतिषी देव अपनी माया का संकोच कर व्यग्र चित्त हो भय के मारे तत्काल वहाँ से भाग गया। सच है -बलवान के सामने से भाग जाने में ही कुशलता है । अब सब उपद्रव शान्त हो गए। भगवान पार्श्वनाथ ने शुक्ल ध्यान के बल से बारहवें गुण स्थान में पहुंच दूसरे शुक्ल ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का प्रभाव कर लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया।
भगवान को केवलज्ञान हुआ जान तत्क्षण इन्द्र ने भाकर बारह सभामों से सुशोभित संवा योजन प्रमाण समवशरण रचा। भगवान द्वादश सभात्रों के मध्य चतुरांगुल प्रतरीक्ष सुवर्णमय सिंहासन पर बिराजे । देवगण उनके ऊपर चमर ढोलने लगे। भगवान के दश गणषर हुए। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त किया सुनकर विद्याधर, चक्रवर्ती, राजे, महाराजे, स्वर्ग के देव मादि बड़े-बड़े महापुरुष तथा सर्वसाधारण जनसमूह उनके दर्शन-पूजन को पाने लगे।