Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 325
________________ णमोकार च भगवान का सभक्ति पूजन स्तवन कर पश्चात् स्वयंभू यादि ग्यारह महर्षियों को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर बैठे गए। प्रगट रहे कि समवशरण में निरन्तराय आना जाना लगा रहता है। कोई आता है कोई जाता है, कोई धर्मोपदेश श्रवण करता है। भगवान के समवशरण में यह अतिशय है कि समवशरण में रात्रि दिन का भेद ज्ञात नहीं होता अर्थात् निरन्तर कल्पवृक्षों और भामंडल के प्रभाव से कोटि सूर्य में भी अधिक प्रकाश रहता है सूर्य का तेज प्रकाश तो संतापकारक होता है परन्तु वह प्रकाश संतापहर्ता है और वहाँ चाहे कितने ही देव, मनुष्य, पशु, पक्षी ना जावें परन्तु समवशरण में सब समा जाते हैं । स्थान संकीणता कभी नहीं होती और समवशरण में स्थित प्राणियों को मोह, भय, द्वेष, विषयों की अभिलापा, रति, विजिगमिया ( दूसरे को नीचा दिखाने की इच्छा) निद्रा, तंद्रा ( ( मालस्य ) छींक, जम्हाई, रोग, शोक, चिंता, क्षुधा, तृषा आदि कोई भी अकल्याण व विघ्नकारक कारण उपस्थित नहीं होते हैं । ३०२ परस्पर जाति विरोधी जीव भी एक स्थान में बैठे निश्शंक हो धमपदेश श्रवण करते हैं श्रीर भगवान के धर्मोपदेश रूपी अमृत वर्षा के प्यासे युगल कर जोड़े उनके मुख की ओर देखते हुए समय की प्रतीक्षा करने लगे जिस प्रकार मेघों को देखकर चातक वर्षा होने की प्रतीक्षा करता है तब गणधरों में तिलकसम श्री स्वयंभू गणधर ने सानन्द भक्ति पूर्वक नमस्कार करके भगवान से निवेदन किया 'प्रभो ! यह जीव अनादिकाल से जड़कर्म के वशीभूत हो अपने-अपने स्वाभाविक भावों को भूलकर चतुर्गति सम्बन्धी घोर दुःखों से व्याकुल चित्त इस अपार संसार रूप कानन में सिंह से भयभीत मृगी की नाई इतस्ततः परिभ्रमण करता फिरता है। सो हदीद इस बार में क्यों दुख भोग रहा है और इस दुख से छूटने का उपाय क्या है ? इस बात को आपके श्री मुख से मेरी और उपस्थित मंडल के सुनने की बहुत उत्कंठा है। कृपा कर कहिए । तब भगवान गणधर महाराज के प्रश्न के उत्तर में अपनी मेघ के समान निरक्षरी दिव्य ध्वनि द्वारा कहने लगे; मुनेश ! संसार के दुःखों का कारण और उससे छूटने का उशय जो तुमने पूछा सो बहुत अच्छा किया। अब इसी विषय को कहता हूं समस्त संसारी जीवों को जन्म मरण की परिपाटी का कारण संसार, संसार के कारणों, मोक्ष, मोक्ष के कारणों को न जानकर पंचेंद्रिय जनित विषय सुखों में लोलुपता और क्रोध - मान-माया-लोभ रूप कषाय व मोह के वशीभूत हो ग्रहीत, प्रग्रहीत मिथ्यात्व रूप प्रवृत्ति है इसीलिए ये दोष न्यूनाधिक्यता से सभी संसारी जीवों में पाए जाते हैं और इन्हीं के वश वे नाना प्रकार की शुभाशुभ क्रियाएँ करते हुए उनके उदयकाल में तज्जनित सुख दुखों का अनुभव करते हुए विकराल अपार संसार सागर में भ्रमण करते रहते हैं । यद्यपि संसार में समस्त प्राणी सदाकाल ये चाहते हैं कि हमको अविनश्वर शाश्वत सुख प्राप्त हों तथा उसके प्राप्त करने के लिए उपाय भी करते रहते हैं परन्तु सच्चे सुख दुःख के स्वरूप को भली भांति जानकर दुख के मूल कारण कषाय का अभाव नहीं करते । श्रतएव सच्चे निराकुलित सुख से वंचित रहकर संसार में ही भ्रमण रहते हैं। जिन जीवों के मोहादिकमों का तीव्र उदय रहता है वे तो सदा विषमविष समान विषय भोगों में ही तल्लीनता के कारण आत्मकल्याण से सर्वथा विमुख रहते हैं । उनकी आत्महित की घोर स्वप्न में भी रुचि नहीं होती । जिनके कदाचित दैवयोग से मोहादि कर्मों का मंद उदय हो जाता है तब उन्हें कुछ आत्म कल्याण की ओर प्रवृत्ति होती है। इतना होने पर भी बहुत से भोले जीव संसार में प्रचलित अनेक मिथ्यामागों में

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