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णमोकार ग्रंथ
atre ग्राम को गया, वहाँ एक ब्राह्मणशाला में इन्द्रभूति नाम का पंडित अपने पांच सौ शिष्यों के सन्मुख व्याख्यान दे रहा था । इन्द्रभूति अखिल वेदांग शास्त्रों का विद्वान था और विद्या के मद में चूर हो रहा या । इन्द्र छात्र का वेष धारण करके उस पाठशाला में एक मोर जाकर खड़े हो गये और उसके ध्याख्यान को सुनने लगे। टर में सिम लेते हुए जब कहा कि "क्यों तुम्हारी समझ मैं प्राया" और छात्रवृन्द जब कहने लगे कि "ही श्राया", तब इन्द्र ने नाशिका का अग्रभाग सिकोड़कर इस प्रकार से अरुचि प्रकट की कि वह छात्रों की दृष्टि में श्रा गई, उन्होंने तत्काल ही उस भाव को गुरु महाराज से निवेदन किया । इन्द्रभूति ब्राह्मण इस प्रपूर्व छात्र से बोला कि "समस्त शास्त्रों को मैं हथेली पर रखे हुए श्रवले के समान देखता हूं और प्रत्याय वादीगणों का दुष्टमव मेरे सन्मुख आते ही नष्ट हो जाता है फिर कहो किस कारण से मेरा व्याख्यान तुम्हें रुचिकर नहीं हुआ ?" इन्द्र ने उत्तर दिया "यदि प्राप सम्पूर्ण शास्त्रों का तत्व जानते हैं तो मेरी इस भार्या का अर्थ लगा दीजिए और यह श्रार्या उसी समय पढ़के सुनाई -
प्रार्या
षड़प नव पदार्थ त्रिकाल पंचास्तिकाय षटकायान् । विदुषांवरः सवहि, यो जानाति प्रमाण नयेः ॥"
इस अभुतपूर्व और प्रत्यन्त विषम अर्थ वाली भार्या को सुनकर इन्द्रभूति कुछ भी नहीं कह सका, अर्थात कुछ भी नहीं समझा। यद्यपि आर्या के शब्दों का अर्थ कुछ कठिन नहीं है अपितु सरल व सुगम है कि जो पद्रव्य नव पदार्थ, तीन काल, पंचास्तिकाय और छह्कायों को प्रमाण नय पूर्वक जानता है वही पुरुष विद्वान में श्रेष्ठ है, परन्तु इसमें जिन पदार्थों की संख्या बतलाई है वह किसी भी दर्शन में नहीं मानी गई है इसीलिए इन्द्रभूति उसका प्रभिप्राय प्रगट न कर सका था। इसीलिए वह बोला, "तुम किसके विद्यार्थी हो ?" इन्द्र ने उत्तर दिया- "मैं जगद्गुरु श्री वर्द्धमान भट्टारक का छात्र हूं।" तब इन्द्रभूति ने कहा "मोह ! क्या तुम उसी सिद्धार्थ नन्दन के छात्र हो जो महाइन्द्रजाल विद्या का जानने वाला है और जो लोगों को आकाशमार्ग में देवों को आते दिखलाता है अच्छा तो मैं उसी के साथ शास्त्रार्थ करूंगा, तेरे साथ क्या करूँ। तुम्हारे जैसे छात्रों के साथ विवाद करने से गौरव की हानि होती है। चलो चलें उससे शास्त्रार्थ करने के लिए" – ऐसा कहकर इन्द्रभूति इन्द्र को मारो करके प्रपने भाई प्रग्निभूति और वायुभूति के साथ समोशरण की ओर चला !
वहाँ पहुँचने पर ज्यों ही मानस्तंभ के दर्शन हुए त्यों ही उन तीनों का गवं गलित हो गया, पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को देखकर उनके हृदय में भक्ति का संचार हो गया प्रतएव उन्होंने तीन प्रद क्षिणा देकर नमस्कार किया, स्तुतिपाठ पढ़ा और उसी समय समस्त परिग्रह का त्याग करके जिन दीक्षा ले ली। इन्द्रभूति को तत्काल ही सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई और अन्त में वे भगवान के बार ज्ञान के धारी प्रथम गणधर हो गए। समोशरण में उन इन्द्रभूति गणधर ने भगवान से 'जीव प्रस्तिरूप है, पथवा नास्तिरूप है, उसके क्या-क्या लक्षण हैं, वह कैसा - इत्यादि सात हजार प्रश्न किए ।उसर में जीव मस्तिरूप है,
नादिन है, शुभाशुभ कर्मो का भोक्ता है, प्राप्त हुए शरीर का प्राकार है, उत्पाद व्यय धौम्य लक्षण विशिष्ट है, स्वयं वेदना है। अनादि प्राप्त कर्मों के सम्बन्ध से नौकर्मरूप पुद्गलों को ग्रहण करता हुमा, छोड़ता हुमा, भव भव में भ्रमण करने वाला मीर उक्त कर्मों के क्षय होने से मुक्त होने वाला - इस प्रकार से अनेक भेदों से जीवादि वस्तुओं का सद्भाव भगवान ने दिव्य ध्वनि के द्वारा प्रस्फुटित किया । पश्चात् श्रावण मास को प्रतिपदा को सूर्योदय के समय रोम मुहूर्त में जब कि
मामभि