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गमोकार ग्रंथ
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जित नक्षत्र पर था, गुरु के तीर्थ की (दिव्य-ध्वनि की अथवा दिव्यधति द्वारा संसार समुद्र से तिरने में कारण भूत यथार्थ मोक्ष मार्ग के उपदेश) उत्पन्नता हुई।
__ श्रीइन्द्रभूति गणधर ने भगवान की वाणी को तत्वपूर्वक जानकर उसी दिन सायंकाल को मंग पौर पूर्वो की रचना युगपत की और फिर उसे अपने सहधर्मी सुधर्मा स्वामी को पढ़ाया। इसके अनन्तर सधर्माचार्य ने अपने सधर्मी जम्बस्वामी को और उन्होंने अन्य मुनिवरों को वह श्रत पहाया। अथानन्तरजब भव्य जीव जन्म-जरा-मृत्यु रूप रोग को दूर करने वाले भगवान के धर्मोपदेश रूप अमृत का पान कर परमानन्द सागर में निमग्न थे उस समय सुरेश ने खड़े होकर मवधिज्ञान द्वारा भगवान का विहार समय जानकर ये विनती करी
'हे भगवान् ! हे दया सागर | प्राप संसार के पालक हो, प्राणीमात्र के निस्वार्य बन्धु हो, दु:खों के नाश करने वाले हो और सब प्रकार सुखों के देने वाले हो प्रतएव हे जगदीश ! यह विहार समय है सो कृपा करके विहार कर मोहरूपी प्रन्धकार से प्रात्मकल्याण के मार्ग से पज्ञात भव्य जीवों को अपने उपदेश रूपी किरणों से मिथ्यात्व रूपी घोर अंधकार को नष्ट कर उनके हृदय में ययार्य मोक्ष मार्ग का प्रकाश कीजिए।' इस प्रकार इन्द्र के द्वारा प्रार्थना करने पर भव्य जीवों के परम प्रकर्ष पुन्योदय से भगवान का अनिच्छक गमन होता हुमा, भगवान जिस मार्ग द्वारा गार करें उस मार्ग की भूमि को पवनकुमार जाति के देव कंटक रहित करते जाते हैं, और वह एक योजन तक तण रजादि रहित दर्पगवन् निर्मल हो जाती है । मेषकुमार जाति के देव सुगंधित जल के कण मोती के समान बरसाते जाते हैं। पवन कुमार संशक देव मंद, सुगंधित वशीतल पवन बहाते आते हैं. उस मार्ग में भगवान तो समवशरण की ऊँचाई प्रमाण माकाश में गमन करते हैं और भक्ति से प्रेरित देव उनके चरण कमल के नीचे सुवर्णमयी पन्द्रह-पन्द्रह कमलों की पन्द्रह पंक्ति मर्यात दो सौ पच्चीस कमलों का समुदाय एक स्थल रचते हैं, उनमें सबसे मध्य के कमल पर चार पंगुल मन्तर से अन्तरिक्ष में परण रखते मनुष्यवत् डरा भरते हुए । भगवान विहार करते जाते हैं पौर मुनि, अमिका, श्रावक, श्राविकामों का चार प्रकार का संघ का विहार भूमि में होता है, कैसी है वह भूमिकोट-वह संयुक्त वीथी रूप है मौर देव, विद्याधर, पारण मुनि, सामान्य केवली ये भी माफाश में गमन करते हैं। भगवान के केवल ज्ञान के प्रतिशय के प्रभाव से न तो शरीर की छाया पड़ती है मौ न नख, केश बड़ते हैं और उनका एक मुख होसे हुए चारों दिशावर्ती जीवों को चतुर्मुख से दर्शन होते हैं।
भगवान के आगे-मागे सूर्य चन्द्र के प्रकाश को मंद करने वाले सहस्त्र पोर से संयुक्त बलयाकार धर्म चक्र चला जाता है, देव मनुष्यगण जय-जयकार करते चले जाते हैं. -इत्यादि वैभव से संयुक्त विहार करते भगवान जहाँ जाकर विराजेंगे वहाँ इन्द्र की मात्रा से प्रथम धनाधिपादिक देव जाकर समोचरण रचना पूर्ववत रचते हैं तब भगवान विहार कर जाकर विराजते हैं इस प्रकार जगत्पूज्य श्री स ग्मतिनाय प्रमेक निकट भल्गरूपी सस्यों को (धान्य को) धर्मामृत-रूपी वर्षा के सिंचन से परमानंधित करते हुए तीस वर्ष तक ममेक देशों में बिहार करते हुए कमलों के धम से प्रतिशय शोभायमान पावापुर के उधान में पहुंचे। भगवान के गण में इन्द्रभूति प्रसस्त ग्यारह (११) गणषर वादविजयी मुनि पार सो (४००),पौवह पूर्व के पाठी तीन सौ, माचारोग भूल पाठी शिष्य मुनि १० प्रदिशानी तेरह सौ, केबलनामी..., विक्रिया अधिपारी १००, ममः पयामी पापसी (५००) थे।