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पमोकार ग्रंथ
यह सुनकर भगवान ने उत्तर में निवेदन किया-पिता जी ! प्रापने जो कहा सो ठीक है परन्तु मैं ऋषभदेव के समान नहीं । कारण कि उनकी प्रायु तो ४८ लाख पूर्व की थी और मेरी माय केवल सौ वर्ष की है। जिसमें भी सोलह वर्ष तो बाल्य अवस्था में ही व्यतीत हो चुके हैं और नीसवें वर्ष में संयम समय है। प्रतएव
अल्पकाल तिथि प्रल्पसुख । पल्प प्रयोजन काज । कौन उपद्रय संग्रहै । समझ देख नरराज ॥१॥ सुर नरेत लोचन भरें। रहे वदम बिलषाय ।
पुत्र माह वर्जन वचन । किसे नहीं दुखवाय ॥२॥ इस प्रकार संमार की विषय वासनाओं से विरक्त चित्त पाश्र्वनाथ भगवान निजात्मीक सुख प्राप्त करने को साधन जिन दीक्षा के समय की प्रतीक्षा करते हुए प्रानन्द पूर्वक दिन व्यतीत करने लगे।
वह मसित पूर्व कम गा पीव दिसा के पाप के फल से पंचम नरक में गया वहां उसने सत्रह स गर पर्यन्त छेदनभेदन यंत्रों के द्वारा पिलना यादि कठिन से कठिन दुःख भोगे और वहां से निकलकर सत्रह सागर पर्यन्त सस्थावर जीवों को पर्यायें धारण को और वहाँ भी बहुत दुःख भोगे । तीन सागर के पश्चात् अबकी बार कुछ पाप का भार हल्का हो जाने से यह महीपालपुर के राजा के यहाँ पूत्र हमा मौर कुछ समय के मनन्तर योग्य अवस्था होने पर पिता के पद को प्राप्त हो गया प्रांत राजा हो गया। प्रजा का नीति पूर्वक राज करते हुए कुछ समय बीतने पर इनके एक पुत्री हुई। उसका नाम रखा गया-वामा देवी। जब वह यौवन अवस्था में पदार्पण करने लगी तव महाराज महीपाल ने उसका विवाह महाराज विश्वसेन के साथ कर दिया।
परित्र नायक पार्श्वनाथ भगवान इन्हीं के पुत्र हुए थे। इस सम्बन्ध से महीपाल भगवान पार्श्वनाथ के नाना हए । कुछ समय के उपरान्त देव के दुर्विपाक मे महाराज महीपाल की प्रिय पटरानी का देहान्त हो गया। इसके वियोग से इनको बड़ा खेद हुमा । दुख का उदग बहुत बढ़ा । अन्त में वे सहन न कर सके प्रिय पटरानी का प्रसह्य शोक उनके हृदय के मध्य लहरें लेने लगा। कुछ समय पश्चात किसी तरह हृदय में वैर्य धारण कर एक पल भी फिर वहाँ न ठहरकर घर से निकल पड़े और तापसी भेष भारपा कर समस्त अंग में भस्म रमाकर मृग छाला विछाए हुए बन में पंचाग्नि तप तपने लगे। यहाँ से फिर अनेक देश, नगर, ग्रामों में विहार कर तपस्या करते हुए बनारस नगरी के कानन में प्राकर ठहरे। इसी अवसर में एक दिन श्री पाश्वनाथ भगवान अपने सखामों के साथ बन क्रीड़ा करने को गए । कोड़ा समाप्त होने पर जब बनारस की पोर पा रहे थे कि उन्हें मार्ग में निज जननी के पिता महीपाल पंचाग्नि तप तपते हुए दृष्टिगत हुए।
उस समय महीपाल भगवान को निकटवर्ती आए हुए भी विनय प्रणाम करने से रहित देखकर अपने मन में विचारने लगे कि यह कुमार बड़ा मानी अहंकारी है । जो प्रथम तो मैं जननी पिता हं, दूसरे मैं तापसी हैं, दोनों प्रकार से इनके मेरे प्रति पूज्य भाव होने चाहिए। परन्तु इसमें विनीत नम्रता का लेशमात्र भी नहीं। महीपाल भगवान के विनय प्रणाम न करने से सिर से पांव तक जल उठे। क्रोध की माग उसके रोम-रोम में प्रवेश कर गई। पर वह उनका कुछ करने-घरने को लाचार थे। अन्त में अपने मन ही मन में क्रोधित हो हाथ में परसी लेकर जलाने के लिए लकड़ो चौरने को तत्पर हुए।