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णमोकार मंच
बड़े होने पर महाराज ने अपना राज्य का सब भार इनके आधीन कर दिया । अब मानन्द कुमार राज्य सिंहासनको प्रकृत करने लगे। ये अभी अपनी प्रजा का शासन प्रेम और नीति के साथ करने लगें। अपनी संतानवत् इनका प्रजा पर प्रेम था। इस कारण प्रजा भी इनके साथ बहुत संतुष्ट रहती थी।
इस प्रकार प्रजा का पालन करते हुए इनका बहुत सुख पूर्वक समय बीतता था। एक दिन की बात है कि आनन्द कुमार अपने निकटवर्ती ननुष्यों सहित सभा में बैठे हुए दर्पण में अपने मुखमंडल की शोभाका निरीक्षण कर रहे थे कि उन्हें एकाएक मस्तक में एक श्वेत केश दृष्टिगत हुआ । उसके देखते ही क्षणमात्र में उनके हृदय में वैराग्य का अंकुर उत्पन्न हो पाया । वे विचारने लगे कि काल के घर का दूत अब प्रा पहुँचा है। अतएव इन विषयों से इन्द्रियों को हटाकर अपने वश में कर ल । मैं बडा मूर्ख हूं।
जोपाज तक विषयों में फंसा रहा और कभी अपने मात्महित की पोर मैंने ध्यान नहीं दिया । यह राज्यभार और स्त्री, पुत्र, भाई, बंधु आदि का स्नेह केवल संसार का बढ़ाने वाला है और इसी के मोह में फंसकर यह जीव नाना प्रकार के दुखों को भोगता है। जिन पुरुषों ने इस मोहजाल को तोडकर पविनश्वर मोक्ष सुख के देने वाली जिन दीक्षा स्वीकार की है वे ही इस संसार सागर से पार होकर निजास्मीक अक्षयानंत शिव सुख के भोक्ता हुए हैं । इस प्रकार दढ़ विचार करके महाराज मानन्दकमार ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्यभार सौंपकर सागरदत्त मुनिराज के निकट मोक्ष सुख की साधक जिन दीक्षा ग्रहण कर ली और अनादिकाल से पीछा करने वाले प्रात्म शत्रु कर्मों का नाश करने के लिए दुस्सह तपश्चरण करना प्रारम्भ किया।
तदनन्तरषोडशभावनात्रों के द्वारा पूज्य तीर्थकर नाम प्रकृति का बंध किया। जिससे प्रानंद कुमार मुनिराज निर्जन बन में प्राप्तापन योग धारण किए थे कि उसी वन में वह जन्मान्तर से शत्रता रखने वाला कमठ का जीव सप्तम नरक से निकलकर विकराल-भयंकर रूप का धारक पंचानन अर्थात सिंह हमा, और देव से प्रेरित हो इस पोर पा निकला | ध्यान में निमग्न मुनिराज को देखते ही इसमें पर्व पात्रता के संस्कार जाग्रत हो पाए । बस फिर क्या था? उसने कोषाध होकर प्रपने तीखे-नलों और विकराल नुकीली डाकों से मुनिराज के शरीर को विदीर्ण कर डाला । सच है. जो पापी होते लोग भयंकर से भयंकर पाप करने में किन्धिनमात्र नहीं हिचकते।
चाहे फिर उस पाप के फल से उन्हें जन्म-जन्म में भी क्यों न कष्ट सहना पडे । मनिराजको बड़ा ही कष्ट हुमा । पर उन्होने इस दुस्सह उपसग को बड़ी स्थिरता पौर शान्ति से सहकर प्राणी विसर्जन कर त्रयोदाम् स्वर्ग में इन्द्र पद प्राप्त किया। प्रणानंतर जम्बूद्वीप के अन्तर्गत बाराणसी नामक मनोहर नगर था। उसके राजा थे विषपसेन । इनका जन्म कुरुवंश मौर काश्यप गोत्र में हमापा। विश्वसेन धर्मक, नीति निपुण, दानी मोर सभ्यदृष्टि थे। उनकी रानी का नाम था-धामादेवी। जो यहत सुन्दरी, विदुषी पौर धर्म परायण थी । इन दोनों दम्पतियों के पुण्योदय से प्राप्त हई राज्य विभति को भोगते हुए मानन्द मौर उत्सव के साथ दिन व्यतीत होते थे जिससे ये काल की गति को भी जान सके। एक दिन घामादेवी पपने शयनागार में सुख पूर्वक कोमल शय्या पर शयन किये गए थी कि उन्हें रात्री के पश्चिम भाग में तीर्थराज के अवतार सूचक गजराण, वृषभ, केशरी प्रावि सोलह स्वप्न हए और अन्त में हाथी को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा । स्वप्न देखकर देवी जागृत हो गई।