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णमोकार ग्रंथ
तब भगवान ने काष्ठ के मध्य मवधिज्ञान द्वारा सर्प युगल जानकर हित मित प्रिय वाणी से कहा— प्रतापस! इस काष्ठ को मत विदारण करो, कारण कि इसमें सर्प सर्पिणो का युगल बैठा हुआ है उसका घात हो जाएगा। परन्तु उसने न माना और उल्टै क्रोषित होकर कहा - "श्री बालक ! क्या ।" चौपाई
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हरिहर ब्रह्मा तुम हो भए । सकल चराचर ज्ञाता ठये ।
मनं करत उद्धत अविचार । चीरयो काठ न लाई बार ॥ १ ॥
काष्ठ के चीरते ही तत्र स्थित युगल सर्पों के खंड हो गए। तब पुनः भगवान ने कहा--' श्रो तापसी ! तुम क्यों वृथा गर्व कर रहे हो। मान के वशीभूत होकर बारम्बार कहने पर भी न माना । श्रव इन निरपराध जीवों की हत्या करके क्या लाभ उठाया ? भला कहो तो सही। इन बेचारों ने तुम्हारा क्या नुकसान किया था ? बड़े आश्चर्य की बात है कि मनुष्य होकर भी तुम्हारे में दया का अंकुर तक नहीं दीख पड़ता ।' तब वह तापसी कोधित होकर बोला- 'प्रो कुमार ! देखो ! प्रथम तो मैं तुम्हारी जननी का पिता, दूसरे पंचाग्नि तप तपने वाला तापसी । तुम्हें दोनों संबंधों से मेरे प्रति पूज्य भाव होकर विनय प्रणाम करना चाहिए था । किन्तु तुम उसके प्रतिकूल मेरा मान खंडन कर रहे हो । क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि मैं एक पाद द्वारा खड़े होकर कपर बाहें किए हुए क्षुधा, तृपा की वेदना सहता हुआ नित्य पंचाग्नि तप साधन करता हूँ और जो कुछ थोड़ा-बहुत शुष्क फल, पत्र आदि आहार मिल जाता है उसी को सन्तोष वृत्ति से हूँ। मेरे तपश्चरण को ज्ञान शून्य अज्ञान तप बतलाकर निंदा कर रहे हो ।' तब उसे भगवान ने फिर कहा--' स्रो तापसी ! देखो ! तुम्हारे पंचाग्नि तप तपने में नित्य प्रति कितने पदकाय के जीवों की हिंसा होती है और जहाँ हिंसा होती है वहाँ नियम करके पाप का बन्ध होता है और आप यह खूब अच्छी तरह जानते हैं कि पाप के फल से जीवों को नरकादि दुर्गतियों में ये असह्य कष्ट भोगने पड़ते हैं ।
इस कारण तुम्हारा तपश्चरण करना अज्ञान तप है। बिना उद्देश्यों के समझे बूझे व्रतादि धारण करना अंधे की दौड़ के समान व्यर्थ अथवा अल्प ( निरतिशय) पुन्य बन्ध का कारण होता है ज्ञान के बिना अज्ञानी जीव सैकड़ों जन्मों में दुस्सह् कायक्लेश तप करके जितने कर्मों का क्षय करते हैं। उतने कर्मों को ज्ञानी जीव एक क्षण मात्र में नाश कर देते हैं। देखो ! यद्यपि अज्ञानी जीव कायक्लेश तप करके नव प्रवेशक पर्यन्त ( १६ स्वर्गों ) के ऊपर नव ग्रेवेयक विमान हैं यहां तक मिथ्या दृष्टि जा सकता है । भागे नहीं जाते हैं परन्तु आत्मा के स्वभाव विभाग के ज्ञान श्रद्धान ( दृढ़ निश्चय) बिना कर्तव्याकर्तव्य की यथार्थ प्रवृत्ति न होने से निजात्मीक सुख अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते। अतएव निर्दोष भगवान के द्वारा उपदेशित पवित्र अहिंसामयी जिन धर्म का आश्रय ग्रहण कर जो धर्मं दुखों का नाश कर सुखों का देने वाला है । देखो ! जो भ्रष्टादश दोषों से रहित और चराचर के देखने वाले (सर्वज्ञ) हैं वे 'देव कहाते हैं । ऐसे निर्दोष देव द्वारा निरूपण किए हुए मोक्षमार्ग ही धर्म कहलाते हैं। धर्म का सामान्य लक्षण ये है कि - जो 'संसार दुःखतः सत्वान यो धरत्युत्तमे "सुख" - संसार के दुःखों से छुटकारा पाकर जीवों को उत्तम सुख में पहुँचा दे वही धर्म है । जो परिग्रह रहित, बीतरागी, तपस्वी, मोक्ष साधन में तत्पर हों और संसार के दुःखी जीवों को आत्महित के मार्ग पर लगाने में कटिबद्ध हों। वे ही सच्चे गुरु हैं । इन तीनों पर प्रचल दृढ़ विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं । ये सम्यग्दर्शन मोक्ष महल पर पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है। इनके बिना ज्ञान और चारित्र अंक के बिना शून्यक्त निष्फल हैं । सम्यक्त्व