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णमोकार पंप
शिला के समीप गये । वहां पहुंचते ही लक्ष्मण ने उम शिला की प्रष्ट द्रव्यों से पूजनकर फिर उसको तथा वहां से निर्वाण होने वाले सिद्धों को नमस्कार कर एक योजन चौड़ी चौकोर सर्वशोभद्र नाम की शिला को अपने हाथों से जोघ के ऊपर तक उठा ली। लक्ष्मण की यह अनुपम अतुल वीरता देखकर देवों ने पुष्प वर्षा की, अनेक प्रकार के बाजे बजाए और उम तो बहुत प्रशंसा को उनी दिन मे यह भरन खंड में आठवां वसुदेव प्रसिद्ध हुा । यही रावण के वंश का विनाशक और रावण के सुख की इनिधी करने वाला पुष्पोत्तम है। इन प्रकार देवों के द्वारा जब और भी विद्याधरों ने लक्ष्मण की प्रशंसा सुनी तब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि यह रावण का पूर्ण नाग करेगा। उस समय समस्त विद्याधर और वानरवासी अपने सुन्दर विमान पर उन्हें बैठाकर किष्किन्धापुरी में ले पाए। अब रावण से युद्ध करने का निश्चय किया गया नव विद्याधर अपनी अपनी सेना इकठ्ठी करके रामचन्द्र के दल में प्राकर मिलने लगे । मुत्री व ग्रादि अनमो अपनी सेना लेकर आ गये। रामचन्द्र के परम प्रकर्ष पुण्योदय से उस समय विद्याधर और वानरवंशियों की असंख्य सेनाएं एकत्रित हो गई। इननी अपार सेना को देखकर रामचंद्र
और लक्ष्मण ब्रहन प्रसन्न डाए । जब सेना सज धजकर तैयार हो गई तो उसके चलने के लिए प्राजाओ गई। प्राजा पाते ही सत्र मैनिक गण अपने-अपने विमानों पर प्रारूड होकर समुद्र को बोल कर विकटांय न पर प्रा । उन्होंने राक्षसों को राजधानी लंकापुरी चारों ओर से विशाल प्राकार संयुक्त Tी इई देखी।
ग्लंका के देखते ही रामचन्द्र की सेना को विजय सुन्त्रक शुभ शकुन हा जिसे राम लक्ष्मण को अत्यंत प्रानन्द हना । जब राम के ससैन्य पाने का वृत्तांत रावण को विदित हात उसे बड़ा क्रोध प्रामा, परन्तु वह उनका कुछ नहीं कर सका।
इशी प्रसंग में एक दिन को बात है कि सीता तो अपनी रक्षा किये हुए धीरता के साथ मन में बैठी हुई थी । रात्रि के समय रावण भो वहीं पर पहुंचा और राक्षस भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी. सर्प, हापी सिंह नादि भयंकर जीव जन्तुओं को गर्जना करते हुए दिखलाए । पानी बरसाया, अग्नि की भयंकर ज्वाला प्रचलित की और बड़े-बड़े पर्वतों के फूटने जैसा घोर भयंकर दाद किया । इस प्रकार उसने अनेक उपद्रव किये जिनके देखने और सुनने से बड़े बड़े वीर पुरुषों के हृदय कॉप जाते हैं परन्तु तब भी अनकनंदिनी सीता ने अपने अंखड शोलन त को किंचित भी मलिन नहीं होने दिया। उसने इन उपद्रवों से प्राण रहित हो जाना अच्छा समझा, पर रावण का प्राश्रय लेना अच्छा नहीं समझा। उसने अपनी रक्षा की प्रार्थना धिमी से नहीं की। वह नराघम सीता का चित्त निलित करने के लिए रात भर इसी प्रकार उपद्रव करता रहा परन्तु जनकनंदिनी के सुमेरु समान अचल चित्त को किंचित भी चलायमान नहीं कर सका। अंत में निराश होकर वह वहां से वापिस लोट पाबा। सोता की प्राप्ति न होने पर काम जमे अधिकाधिक धीर और मंतप्त करने लगा, परन्तु परश से मन मारकर रखना पडा।
___ जना यह वृत्तांत रावण के लघु भ्राता विभीषण को विदित हुमा तब उसे बड़ी करुणा पाई । यह सी समय सीता के निकट प्राया और बोला- माता! तुम क्यों रो रही हो?" तव सीता ने जापानी समस्त दुःस्त्र भरी या कह सुनाई । सुनकर विभीषण को बड़ा दुःन्त्र हुना । वह वहाँ सीता को धैर्य बंधा कर रावण के पास आया और उसने बोला---'हे पूज्य ! प्राप तो स्वयं विद्वान हैं । यह आप भली प्रकार जानते हैं कि परस्त्री सेवन करने से अनेक बुराइयां उत्पन्न होती हैं अतएव मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप जिसकी स्त्री लाए हैं उसे उसके सुपुर्द कर दें तो बहुत अच्छा हो । ऐसा करने से हमारे कुल भी की ति प्रकट होगी । माग एकाग्रचित्त होकर विचार करें। इसमें हमारी भलाई न होगी दरन