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णमोकार प्रथ
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फिर लक्ष्मण ने उसी चक्र को अपने शत्रु पर चलाया। रावण के समीप पहुंचते ही चक्र उसे धाराशाई करके (मार के) उल्टा लक्ष्मण के हाथ में प्रा गया।
रावण के मरते ही सेना में हाहाकार मच गया। प्रनाथ सेना जिधर मार्ग निकला, उधर ही भाग निकली ! युद्ध का अंत हुमा । विभीषण ने भाई का अग्नि संस्कार किया। संसार को यह लीला देखकर इन्द्रजीत, मेघनाद प्रादि उसी समय बासीन होकर तपोवन में चले गये। उन्होंने उसी समय मायाजाल तोड़ कर आत्महित का पथ जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली । उसी दिन से रामचन्द्र की कीर्ति पताका संसार में फहराने लगी। लक्ष्मण ने चरत्न की पूजा की। विभीषण को लंका का राज्य दिया गया।
सब राक्षसवंशी रामचन्द्र से प्राकर मिले । भामंडल, सुग्रीव, हनुमान पौर विराधित मादि को राम की विजय का अत्यधिक पानन्द हुमा। तदनंतर रामचन्द्र जी सीताजी से पाकर मिले। सीता ने स्वामी को नमस्कार किया । अपने प्यारे प्राणनाथ को पाकर जनकनंदिनी को जो हर्ष हुमा, वह लेखनी से नहीं लिखा जा सकता, वह मनुभव से ही जाना जा सकता है । बहुत दिन पश्चात् पाज दोनों के विरह दुःख की इतिश्री हुई। रामचन्द्र ने सीता को फिर पाकर अपने को कृतार्थ माना। दोनों का सुखद सम्मिलन हुमा । कुछ समय पश्चात् लक्ष्मण भी वहीं भा पहुँचा और सीता के चरणों में गिर पड़ा। सीता ने उसे उठाकर उसके कुशल समाचार पूछे । सब लक्ष्मण ने अपनी सारी कथा कह सुनायो ।
रामचन्द्र और सीता के दिन पहले की तरह अब फिर सुख से बीतने लगे । जब रामचन्द्र का सुयश चारों ओर अच्छी तरह फैल गया, तब बहुत से विद्याधर मच्छी-अच्छी वस्तुएँ उनको भेंट कर बड़े ही विनय के साथ उनसे मिले और उनकी अधीनता स्वीकार की। इस सुख में रामचन्द्र के बहुत से दिन प्रानन्द और उत्सव के साथ बीत गये। उन्हें समय का कुछ ध्यान नहीं रहा। रामचन्द्र ने चौदह वर्ष के लिए अयोध्या छोड़ी थी, माज वह अवधि समाप्त हुई। उन्हें मकस्मात् प्रपनी जन्म-भूमि की याद मा गयी । तब उन्होंने अच्छा दिन देखकर अयोध्या के लिए गमन किया । तब उनके साथ-साथ विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, विराधित प्रादि बहुत से बड़े-बड़े राजा इन्हें पहुँचाने के लिए अयोध्यापुरी तक प्राए । मार्ग में और भी बहुत से देशों को यशवर्ती कर दिग्विजयी होते हुए कुछ दिनों पश्चात् अयोध्या में जा
रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीता के पागमन का शुभ समाचार सुनकर अयोध्यावासियों को बड़ा भानन्द हुमा । उन्होंने अपने महाराज के मागमन की खुशी में खूब जय-जयकार किया पौर वहुत यानंद व उत्सव मनाया । महाराज भरत ने जब यह सुना कि रामचन्द्र प्रा गये तो उन्हें बहुत हर्ष हुमा और उनकी अगवानी करने को वे बहुत दूर तक पाए और पहले ही पहुंचकर इन्होंने दोनों के चरणों की अभिवंदना की। रामचन्द्र ने भरत का आलिंगन कर उससे कुशल समाचार पूछे। एक के देखने से दूसरे को परमानन्द हमा। प्राज रामचन्द्र प्रयोध्या में प्रवेश करेंगे इसलिए समस्त नगरी गयी। घर-घर भानन्द-उत्सव मनाया गया, दान दिया गया, पूजा-प्रभावना की गयी। दरिद्र अपाहिज लोग मनवांछित सहायता से प्रसन्न किये गये । रामचन्द्र मानन्दपूर्वक नगरी की शोभा देखते हुए अपने महल में पहुँचे। पहले मातामों से मिले। माताओं ने प्रेमवश होकर पुत्र को भारती उतारी। मातामों को इस समय अपने प्रिय पुष को पाकर जो मानन्द हुआ, उसका पता उन्हीं के हृदय को है । उस प्रानन्द की कुछ थोड़ी प्राप्ति दूसरे उसको हो सकती है जिस पर ऐसा भयानक प्रसंग आकर कमी पड़ा हो । सर्वसाधारण उनके उस मानन्द का, उस सुख का, बाह नहीं पा सकते।
नाई