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नमोकार ग्रंथ
भगवान इन्द्र के द्वारा अंगूठे में रखे हुए अमृत का पान करते हुए दिनों-दिन बढ़ने लगे। उन के लिए सुगंध विलेपन, वस्त्राभूषण, प्रशन पान आदि सब सामग्री इन्द्र भेजा करता या। उन नाना प्रकार के दिव्य रत्नमयी अलंकारों से विभूषित भगवान का शरीर बहुंत सुन्दर मालूम होता था। उनके बहुमूल्य रत्नों से जड़ित वस्त्राभूषणों की शोभा देखते ही बनती थी। उनके वक्षः स्थल पर पड़ी हुई स्वर्गीय कल्प वृक्षों के पुष्पों को सुन्दर मालाएं शोभा दे रही थीं। भगवान इस प्रकार अपनी वय वाले देव कुमारों के साथ कोड़ा करते और स्वर्गीय भोगोपभोगों को भोगते हुए शुक्ल द्वितीया के चन्द्रमा को तरह दिनों-दिन बढ़ने लगे । भगवान जब लावण्य प्रादि गुणों से सुशोभित तथा नवयौवन सम्पन्न हुए तब नाभिराय ने बड़े समारोह के साथ इनका पाणिग्रहण करा दिया।
भगवान ऋषभदेव के दो रानियां थी। उनके नाम थे सुनन्दा और नन्दा । सुनन्दा के भरत आदि सौ पुत्र और एक ब्राह्मी कन्या थी और नन्दा के बाहुबलि पुत्र और सुन्दरी नाम की पुत्री थी । इस प्रकार भगवान ऋषभ देव धन, सम्पत्ति, राज, वैभव, कुटुम्ब, परिवार प्रादि से पूर्ण सुखी होकर प्रजा का नीति के साथ पालन करते हुए तिरासी लाख पूर्व पर्यन्त राज करते रहे तब एक दिन इन्द्र ने अवषिशान से विचार किया कि तीर्थकर भगवान का समस्त समय पतीन्द्रिय भोगों में व्यतीत हा चला जा रहा है, और भगवानविरक्त नहीं हए, वैराग्य का कोई निमित्त विचारना चाहिए। तब इन्द्र ने एक नीलांजना नाम की अप्सरा को जिसका प्राघु कर्म बहुत अल्प शेष रहा था, भगवान के समीप नृत्य करने के लिए भेजा अतः भगवान के सम्मुख उस देवी ने आकर लोगों को चकित करने वाला नृत्य गान करना आरम्भ किया तब समस्त सभा निवासीजन माश्चर्यान्वित होकर कहने लगे कि देखो ऐसे अद्भुत नृत्य का देखना इन्द्र को भी दुर्लभ है । जब ऐसे नृत्य करती हुई नीलांजना अप्सरा का प्रायु कर्म पूर्ण हो गया तो प्रात्मा तो परगति गया और शरीर दर्पण के प्रतिबिम्बवत् अदृश्य हो गया अतः इन्द्र ने नत्य के समय को भंग न होने के कारण उसी समय दूसरी देवांगना रच दी इससे वैसा ही नत्यगान होता रहा अतः यह परिर्वतन सभा निवासियों में से किसी ने नहीं जाना कि यह वही देवी नृत्य कर रही है प्रथवा दूसरी परन्तु यह परिवर्तन भगवान ने अवधिज्ञान से तत्समय ही जान लिया कि वह देवी नृत्य तजकर अन्य लोक गई, यह इन्द्र ने नवीन रच दी है। भगवान के चित पर उसकी इस क्षण नश्वरता का बईत गहरा असर पड़ा । ये विचारने लगे कि अहो जिस प्रकार ये अप्सरा प्राँसों के देखते-देखते नष्ट हो गई उसी तरह यह संसार भी क्षण भंगुर है । यह पुत्र, पत्र, स्त्री ग्रादि का जितना समृदाय है वह सब दुःख को देने वाला है और इन्हीं के मोह में फंसकर 'न नाना प्रकार के दुखों को भोगता है । अतः इनसे सम्बन्ध छोड़कर जिन दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये जिससे मैं प्रात्मोक सच्चा सुख प्राप्त कर सकू। इस प्रकार ऋषभ देव का मन वैराग्य युक्त जानकर लोकांतिक देव पाए और भगवान को वैराग्य पर दृढ़ कर निज स्थान पर चले गये ।
तदनन्तर इन्द्र आदि देव भगवान को पालकी में बैठाकर उन्हें तिलक नामक उद्यान में ले गए। वहां भगवान ने वट वृक्ष के नीचे सभी वस्त्राभूषणों का परित्याग करके कैशलौंच के अनन्तर सिद्ध भगवान को नमस्कार कर जिनदीक्षा स्वीकार की । भगवान के केशों को इन्द्र ने ले जाकर क्षौर समुद्र में डाल दिया। भगवान की दीक्षा के समय सब देव मण प्रा गए और भगवान का दीक्षोत्सव करके अपनेअपने स्थान पर चले गए । भगवान के साथ और भी चार हजार राजाओं ने मुनिव्रत का स्वरूप जानकर फेवल स्वामी की भक्ति करके नग्नमुद्रा धारण की। भगवान ऋषभदेव तो दीक्षा लेकर षट्मास पयन्त निश्चल कायोत्सर्ग में लीन रहे परन्तु शेष जो कच्छ महाकच्छ प्रादि चार हजार राजा थे वे जब