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णमोकार च
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महान पवित्र श्रौषधि का वृक्ष ग्राया था और वह जगत निवासी जीवों के जन्म, जरा, मृत्यु रूप रोगों का नाशकर पुनः उल्टा लोक शिखर जाने को उद्यत हुआ है ।
( ३ ) भरत चक्रवर्ती के गृहपति रतनशिष्य को ऐसा स्वप्न हुआ कि उधलोक से एक कल्पवृक्ष प्राया था और वह जीवों को मनोवांछित फल देकर पीछे स्वर्गलोक के शिखर जाएगा।
(४) चक्रवर्ती के मुख्य मन्त्री की ऐसा स्वप्न आया कि स्वर्गलोक से जो एक रत्नद्वीप आया वह जिन्हें रत्न लेने की इच्छा थी उनको यनेक रन देकर पीछे उध्वलोक को गमन करेगा ।
(५) भरत चक्रवर्ती के सेनापति को ऐसा स्वप्न आया कि एक अनन्तवीर्य का धारी, श्रद्भुत पराक्रमी मृगराज कैलाश पर्वत रूपी पिंजरे को छेदकर ऊपर जाने का उत्सुक हो उछलने को अभियोगी हुआ ।
( ६ ) जय कुमार के पुत्र अनन्तवीर्य को ऐसा स्वप्न आया कि एक अद्भुत, अनन्त कला का धारी चन्द्रमा जगत में उद्योतकर अपने तारागण सहित उर्ध्वलोक को जाने का उद्यमी हुआ है ।
( ७ ) भरत चक्रवर्ती की पटरानी सुभद्रा को ऐसा स्वप्न हुआ कि वृषभदेव की रानियाँ - यशस्वती और सुनन्दा ये दोनों एक स्थान पर बैठी हुई चिन्ता कर रही हैं ।
(क) काशीदेशाधिपति चित्रांगद को ऐसा स्वप्न हुआ कि अद्भुत तेज का धारी प्रकाशमान सूर्य पृथ्वी पर उद्योतकर उर्ध्वलोक को जाना चाहता है।
इस प्रकार आदि धर्मोपदेशक प्रादिनाथ भगवान के निर्वाण सूचक आठ स्वप्न पाठ प्रधान पुरुषों को हुए। इस प्रकार भरत आदि को लेकर सब लोगों ने स्वप्न देखे और सूर्योदय होते ही पुरोहित से उनके फल पूछे 1
पुरोहित ने कहा कि ये सब स्वप्न यही सूचित करते हैं कि भगवान ऋषभदेव कर्मों को निःशेष करमनेक मुनियों के साथ-२ मोक्ष पधारेंगें । पुरोहित इन सब स्वप्नों का फल कह ही रहा था कि इतने में आनन्द नाम का एक मनुष्य श्राया और उसने भगवान ऋषभदेव का सब विवरण कहा। उसने कहा कि जिस प्रकार सूर्य के अस्त हो जाने पर सरोवर के सब कमल मुकुलित हो जाते हैं उसी प्रकार भगवान की दिव्य निबन्ध हो जाने पर सब सभा हाथ जोड़े हुए मुकुलित हो रही है।
यह समाचार सुनकर वह चक्रवर्ती बहुत ही शीघ्र सब लोगों के साथ कैलाशपर्वत पर पहुंचे। उसने जाकर भगवान की तीन प्रदक्षिणायें दी, स्तुति की, भक्तिपूर्वक अपने हाथ से महामह नाम की महापूजा की और इसी तरह चौदह दिन तक भगवान की सेवा की तदनन्तर कैलाश पर्वत पर मा कृष्ण चौदश को शुभ मुहूर्त और अभिजित नक्षत्र में भगवान ऋषभदेव ने तीसरे सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति नाम के शुक्ल ध्यान से मन, वचन, काय तीनों योगों का निरोध किया और फिर प्रन्त के चौदहवें गुणस्थान में ठहर कर जितनी देर में श्र, इ, उ, ऋ लृ इन पंच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण होता है उतने ही समय में चौथे व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम के शुक्ल ध्यान से अघातिया कर्मों का भी नाशकर पर्यकासन से दस हजार मुनियों के साथ वे परमधाम मोक्ष सिधार गए । वे श्रादिनाय स्वामी मुझे तथा भव्यजनों को सम्यग्ज्ञान मीर शांति प्रदान करें।
इति श्री प्रादिनाथ तीर्थंकरस्य विवरण समाप्तः ।
अथ श्री अजितनाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भ:
श्री भावनाय भगवान के निर्वाण होने के मनन्सर पचास लाख कोटि सागर के बाद दूसरे