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गमोकार ग्रंथ
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दुःखमा, दुःखम सुखमा, सुसम दुःखमा, मुखमा और सुखमा सूखमा--ये छह भेद हैं । इनमें से पहला सुखम सुखमा काल चार कोड़ा कोड़ी सागर का होता है। दूसरा सुखमा तीन कोड़ा कोड़ो सागर का, तीसरा सुखम दो कोड़ा कोड़ी सागर का, चौथा दु:खम सुखमा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा कोको सागर का, पांचवां दुःखमा इक्कीस हजार वर्ष का पोर छठा अति दुःस्व मा भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है। प्रथम सुखमा सुखमा काल में महान सुख होता है।
दूसरे काल में भी सुख होता है परन्तु प्रथम काल जैसा नहीं उससे कुछ कम होता है । तोसरे सुखम दुःखमा काल में सुख और किंचित् मात्र दुःख भी होता है । चौथे दुःखम सुखमा काल में दुःख भोर सुख दोनों होते हैं, पुण्यवानों को सुख और पुण्यहीनों को दुःख होता है ! पांचवे दुःखमा काल में दुख ही रहता है, सुख नहीं जिस प्रकार सुषुप्त अवस्था में मनुष्य का अपने दुःख का भान नहीं रहता और वह सुखमय होकर रहता है।
उसी प्रकार पंचम काल के जीवों को किसी को कुछ दुःख है, किसी को कुछ दुःख है परन्तु जब किसी विषय में वे रत हो जाते हैं तो मन्तःकरणगत दुःख को भूलकर अपने को सुखी मानते हैं । जब उसको पुनः स्मरण होता है तब वह फिर दुःख मानते हैं । अतएव पंचम काल में दुख ही है सुख नहीं छठे काल में महान घोर दुख है। देवलोक और उत्कृष्ट भोगभूमि में सदैव प्रथम सुखम सुखमा काल की, मध्यम भोग भूमि में दूसरे सुखम काल की, जघन्य भोग भूमि में सुखम दुःखमा काल की, महाविदेह क्षेत्रों में दुःखम सुखमा चौथे काल की और अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप के उत्तरार्च में तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में तथा चारों कोणों की पृथ्वियों में तथा समुद्रों के मध्य जितने क्षेत्र हैं उनमें सदैव दुःखमा जो पंचम काल है उसकी रीति रहती है नरक में सदा दुःखम दुःखमा जो छठा काल है सदा उसकी सी रीति रहती है अर्थात् सदा छठा काल प्रवर्तमान रहता है।
भरत और ऐरावत क्षेत्र के अतिरिक्त शेष सब क्षेत्रों में ही रीति रहती है। केवल प्राय काय प्रादि बढ़ना, घटना, रीति का पलटना भरत क्षेत्रों प्रौर ऐरावत क्षेत्रों में ही होता है अन्यत्र नहीं क्योंकि इनमें अवसपिणी के छठी उत्सर्पिणी कालों की प्रवृत्ति रहती है यथा जब अवसर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है तो उसमें पहले सुखमा सुखमा काल, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवा और छठा काल प्रवतता है। छठे के पीछे फिर उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है। और तब उसमें उल्टा परिवर्तन होता है। अर्थात् पहले प्रथम दुःखमा दुःखमा का काल प्रवर्तता है फिर पांचवा, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला काल प्रवर्त्तता है।
प्रथम के पीछे प्रथम और छठे के पीछे छठा पाता है इस प्रकार अवसर्पिणी काल के पीछे उत्सपिणी और उत्सपिणी काल के पीछे अवसपिणो काल पाता रहता है। ऐसे काल का परिवर्तन सदैव से चला पाता है और सदैव तक चला जाएगा। इस समय भरत क्षेत्र में प्रवसपिणी काल प्रवर्तमान है। जब यहाँ पहला सुखमा काल प्रवर्तगान होता है तब यहाँ उत्तम भोगभूमि अर्थात देव कुरु उत्तर कुरु, के समान रचना व रीति रहती है। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों हो युगल पैदा होते हैं और जन्म दिन से सात दिवस पर्यन्त ऊपर को अपना मुख किए हुए पड़े रहते हैं । युगलों के उत्पन्न होते ही इनके मातापिता को छौंक या जम्हाई पाती है जिससे वो तत्समय ही प्राणगत हो जाते हैं और अपने सरल स्वभा. विक भावों से मृत्यु लाभ करके ये दानी महात्मा कुछ शेष बचे हुए पुण्य फल से स्वर्ग में जाते हैं । और वहाँ भी उच्च पदाधिकारी होकर मन चाहा दिव्य सुख भोगते हैं। न तो युगल हो अपने माता-पिता का दर्शन करते हैं और न माता-पिता ही अपनी सन्तान का मुखावलोकन करते हैं ।