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णमोकार पंच
एक दूसरे को घेरे हुए अन्त के स्वयंम्भुररमण समुद्र पर्यन्त प्रसंख्यात् द्वीप और समुद्र हैं | वे सब जम्बू द्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त द्विगुण-द्विगुण विस्तार वाले जानने चाहिए।
विशेष--यहाँ पर इन द्वीपों में जो चार सौ प्रछावन अनादि निधन प्रकृत्रिम जिन भगवान के त्यालय जाको स्य शिखते हैं--प्रवाईप में पांच मे पर्वत हैं वहाँ एक-एक मेरु सम्बन्धी चारचार वन हैं। एक-एक वन में चार-चार जिनमन्दिर हैं प्रतः वन के सोलह जिनमन्दिर हुए। ऐसे पांचों मेरु के बीस वनों में अस्सी जिनमन्दिर हैं। एक-एक मेरु पर्वत के पूर्व पश्चिम विदेह क्षेत्रों में सोलहसोलह वक्षार पर्वत हैं और प्रत्येक पर्वत पर एक-एक मन्दिर है।
इस तरह सर्व वक्षार पर्वतों के ८०, एक-एक मेरु सम्बन्धी चार-चार गजदंत पर्वत हैं, इन पर भी एक-एक चैत्यालय है । इस तरह गजदंतों के बीस एक-एक मेरु सम्बन्धी छह-छह कुलाचल पर्वत हैं। उन पर एक-एक मन्दिर होने से तीस मन्दिर उनके हैं । एक-एक मेरु सम्बन्धी चौंतीस-चौंतीस वैताड्य पर्वत हैं। उन पर एक एक मन्दिर होने से सबके कुल एक सौ सत्तर (१७०) जिन मन्दिर हैं । एक-एफ मेरु सम्बन्धी देवकुरु और उत्तरकुरु नाम की दो-दो भोगभूमि होने से और उन प्रत्येक में एक-एक मन्दिर होने से दश मन्दिर उनमें हैं । इक्ष्वाकार पर्वत पर चार, मानुषोत्तर पर्वत पर चार, नंदीश्वर द्वीप में एक-एक दिशा सम्बन्धी एक-एक जनगिर, चार-चार दधिमुख और पाठ-पाठ रतिकर पर्वतों पर ऐसे तेरहतेरह मन्दिर होने से कुल बावन जिन मन्दिर चारों दिशाओं में हैं । रुचिक द्वीप के रुचिक पर्वक पर चार पौर कुंडलद्वीप के कुंडल गिरि पर चार इस तरह अड़सठ जिन मन्दिर हैं । (८०+१०+२+३+ १७०+१०+४+४+५२+४+४=४५८) इन सब चैत्यालयों की मैं बन्दना करता हूं। ये सब विघ्नों के हरने वाले हैं।
__इति मध्य लोक अकृत्रिक चैत्यालय वर्णन् । पांन मेरु सम्बन्धी पाँच भरत, पांच ऐरावत, पांच विदेह-इस प्रकार सब मिलाकर पन्द्रह कर्मभूमि है। पांच हैमवत और पांच हैरण्यवत् इन दश क्षेत्रों में जघन्य भोग भूमि है। पांचहरि और पांच रम्यक् इन दश क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि है। पांच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु इन दश क्षेत्रों में उत्तम भोग भूमि हैं। जहाँ पर असि (शस्त्र धारण) मसि (लिखने का काम) कृषि (खेती) शिल्प (कारीगरी) वाणिज्य (व्यापार-लेन-देन) और सेवा इन षट्कर्मों की प्रवृति हो उसको कर्म भूमि कहते हैं। जहाँ पर इनकी प्रवृत्ति न हो उसको भोग भूमि कहते हैं। मनुष्य क्षेत्र से बाहर के समस्त द्वीपों में जघन्य भोग भूमि की सी रचना है किन्तु अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप के उत्तराई में तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में और चारों कोणों की पृथ्यिों में भी कर्म भूमि की सी रचना है। लवण समद्रमौर कालोदधि समुद्र में छयाण मन्तद्वीप है जिनमें कुभोगभूमि की रचना है। वहाँ मनष्य ही रहते हैं उनमें मनुष्यों की नाना प्रकार की कुत्सित प्राकृतियां हैं।
कल्पकाल वर्णन ___एक कल्पकाल बीस कोटाकोटी सागर का होता है । जैसे चन्द्रमा की हानि वृद्धि से एक मास में शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष ऐसे दो पक्ष होते हैं वैसे ही एक कल्पकाल के दो भेद होते हैं एक उत्सपिणी, दूसरा अवसर्पिणी ! प्रत्येक काल को स्थिति दश कोड़ा-कोड़ी सागर की होती है। दोनों की स्थिति के काल को ही कल्पकाल कहते हैं । उस्स पिणी के छह कालों में वृद्धि और अवसपिणो के छह कालों में दिनों-दिन घटती होती जाती है। प्रवसर्पिणी काल के सुखम, सुखमा, सुखमा, सुखम दुःखमा, दुःखम सुखमा, मौर दुःखमा, प्रति दुःखमा ऐसे छह भेद हैं। इसी प्रकार उत्सर्पिणी के भी प्रति दुःसमा