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णमोकार ग्रंथ
वलय को घन पात मे और घन वात को तनु वात ने घेरा है। ऐसे तीन वातावलयों से वेष्टित अनन्तानन्त आकाश के बीचों-बीच अनादि निधन तीन सौ तेंतालीस घन राजू प्रमाण पुरुषाकार (जिस प्रकार मनुष्य अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर पैर घोड़े करके खड़ा हो आए उस प्राकृतिवाला) लोक स्थित है। इस लोक के बिलकुल मध्य चौदह राजू ऊँची, एक राजू चौड़ी, एक राजू लम्बी चौकोर स्तम्भाकार अस नाडी है। इसको त्रस नाही इस कारण से करते हैं कि स्थावर जीव तो अस नाडी के बाहर भी तीनों लोकों में भरे हुए हैं परन्तु अस जीव देव, नारको, मनुष्प, पशु, पक्षी, कीट, पतंग प्रादि तथा जलचर: मीन, मत्स्य आदि अस नाड़ो के बाहर कोई नहीं है। इसी कारण यह त्रस नाड़ो कहलाती है और न कोई जीव त्रस नाड़ी से बाहर ही जा सकता है किन्तु उपपाद और मरणान्तिक समुद्घात वाले त्रस तया केवल सामुदास वाले भीग नाही याहर कदाचित् रहते हैं।
वह इस प्रकार से कि लोक के अन्तिम वातवलय में स्थित कोई जीव मरण करके विग्रह गति द्वारा प्रसनाती में श्रस पर्याय से उत्पन्न होने वाला है वह जीय जिस समय में मरण करके प्रथम समय में मोहा लेता है उस समय में इस पर्याय को धारण करने पर भी असनाली के बाहर रहता है इसीलिए उपपाद की अपेक्षा त्रस जीत्र अस नाड़ी के बाहर रहता है इस प्रकार अस नाली में स्थित किसी त्रस ने मारणांतिक रामुद्धात के द्वारा अस नाली के बाहर के प्रदेशों का स्पर्श किया क्योंकि उसको मरण करके वहीं पर उतान्न होना है तो उस समय में भी अस जीव का अस्तित्व असनाली के बाहर पाया जाता है। इसी प्रकार जब केवली के केवल समुद्घात के द्वारा नाली के बाह्य प्रदेशों का स्पर्श करते हैं उस समय में भी अम नाली के बाहर उस जीव का सद्भाव पाया जाता है परन्तु इन तीन कारणों के अतिरिका वस जीव अस नाली के बाहर कदापि नहीं जा सकता।
चौदह धन राजू में अस नाली है उसमें नीचे निगोद में एक राजू में तथा सर्वार्थ सिद्धि से ऊपर स जीवं नहीं है। बाकी कुछ कम तेरह राज बस नाली में श्रस जीव भरे हुए हैं और स्थावर भी भरे हुए हैं और तीन सौ उनतीस धन राजू में स्थावर लोक है। ऐसे सब तीन सौ तैनालीस घन राजू में लोक है। एक राज लंबे, एक राज चौड़े और एक राज ऊंचे को घन राज कहते हैं। यदि इस लोक के ऐसे-ऐसे खंड-खंड बनाए जाए तो समस्त तीन सौ तेनालीस खंड होते हैं जैसे सात राज चौडाई नोचे, एक राज चौडाई मध्यलोक में, दोनों का जोड़ पाठ राज़ हुा । इसके प्राधे चार को सात राजू लम्बाई सात राजू ऊचाई से गुणा करके-४४७४७ = १६६ घन राजू अधः लोक हुा । फिर एक राजू मध्य लोक की चौड़ाई में पांच राजू ब्रह्म स्वर्ग के पास की चौड़ाई जोड़ी तो छह राजू हुई । इसकी आधी तीन राजू को साढ़े तीन राज ऊंचाई सात राजू लम्बाई से गुणाकर--३ x ३३४७-७३३ साढ़े तिहत्तर राजू हुए। इतना ही घनफल ब्रह्म स्वर्ग से सिद्धशिला तक हुआ तो मध्य लोक से पंचम स्वर्ग तक का पंचम स्वर्ग से सिद्धालय तक का दोनों घनफल जोड़ कर एक सौ संतालीरा पनफल हुआ। ऐसे १६६+ १४७== सब तीन सौ तेंतालीस घन राजू हुए।
इति लोकस्वरूप वर्णनम् ।
प्रय अघःलोक विवरण प्रारम्भ मेरु के नीचे अधः लोक में क्रमशः एक के नीचे दूसरी, दूसरे के नीचे तीसरी, इसी प्रकार नीचे-नीचे रत्नप्रभा (धर्मा) १, शर्कराप्रभा (वंशा) २, बालुकाप्रभा (मेघा) ३, पंकप्रभा (अंजना) ४, घूमप्रभा (अरिष्टा) ५, तमःप्रभा (मघवी) ६. महातमः प्रभा (माघबी) ७, ऐसे नारकियों के निवास स्थान सात भूमियां हैं। रत्नप्रभा आदि भूमियों के नाम तो गुणों के अनुसार हैं और घर्मा, बंशा रुढ़ि नाम