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णमोकार ग्रंथ
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वचन कहते हुए कुछ तो संकोच होना चाहिए था कि मैं कुलीन और पतिव्रता होकर कैसे अपशब्द बोल रही हूँ । मुझे नहीं मालूम था कि तेरा ऐसा कुल होगा। तू मुझे प्रतिशय मूर्ख जान पड़ती है जो तुझे इतना भी विचार नहीं आया कि कुलीन कन्याओं का एक ही पति होता है। बस फिर कभी ऐसे अश्लील वचन मेरे सम्मुख मुख से न निकालना ।"
सीता का यह कहना मंदोदरी को बहुत बुरा मालुम हुआ। वह क्रोध रूप अनि से जलकर अपने मन ही मन में भस्म हो गयी। उसने सीता का दुख देना चाहा हो था कि इतने में हनुमान वृक्ष के नीचे उतर मंदोदरी श्रादि रावण को स्त्रियों को उनके किये का फल देकर सीता के पास पहुंचा। जनक नंदिनी सीता को सादर नमस्कार कर रामचन्द्र जी की प्रभिज्ञान ( निशानी) रूप मुद्रिका सम्मुख रख कर उसने रामचन्द्र जी का कहा हुआ। समस्त वृत्तांत ज्यों का स्थं कह सुनाया। सीता रामचन्द्र को मुद्रिका पाकर दरिद्री को खजाने की प्राप्ति के समान प्रत्यन्त आनन्दित हुई । उसने हनुमान से पूछा"भाई ! यथार्थ सत्य वार्ता कहो ! तुम्हारा नाम क्या है और कहां से चले आये हो?" तब उत्तर में हनुमान ने निवेदन किया कि में रामचन्द्र का सेवक हूँ। मेरा नाम हनुमान है। सुग्रीव के अनुसार रामचन्द्र ने मुझे आपकी कुशलता का संदेश लाने के लिए भेजा है।"
सुनकर सीता बहुत खुशी हुई। उसने फिर पूछा - "भाई! रामचन्द्र और लक्ष्मण दोनों भाई कुशल तो हैं।'
हनुमान बोला- "तुम कुछ न करें। दोनों नाईरह से किष्किंधापुरी में सेना सहित ठहरे हुए हैं। उनका परम प्रकर्ष पुण्योदय है जो उनके साथ विद्याधरों का अधिपति सुग्रीव भी हो गया है। वे शीघ्र ही विपुल सेना लेकर तुम्हें इस प्राकस्मिक आपसि से छुड़ाने के लिए थायेंगे।"
इस प्रकार हनुमान ने सीता को बहुत कुछ धैर्य बंधाया। सीता जी जब लंका में लाई गई थीं तभी से उन्होंने प्राहार-पान नहीं किया था अतः हनुमान ने उसी समय आहार सामग्री लाकर सीता को आहार कराया और फिर सीता को चित्त प्रसन्न करने के लिए राम सम्बन्धी कथा सुनाने लगे । जब मन्दोदरी को हनुमान ने उसके किये का फल दिया तो वह उसी समय दौड़ती हुई अश्रुपात करती रावण के पास गई और हनुमान की सबै बात कह सुनाई। सुनकर रावण बड़ा क्रोधित हुआ। उसने अपने वीर सैनिकों को आज्ञा दी कि "जाओ तुम अभी उस मूर्ख पशु की खबर लो जो सीता जी के पास बैठा हुआ है।" वीर सैनिक अपने स्वामी की प्राज्ञा पाते ही हनुमान पर चढ़ कर प्राये । हनुमान सैनिकों को माते हुए देखकर शीघ्रता से आकाश गमन कर उनसे लड़ने लगे । बड़े बड़े वृक्ष उखाड़कर रावण की सेना को उनसे धाराशायी करने लगे । अनेक योद्धा प्राणरहित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और कितने ही इधर-उधर भाग गये । अन्त में उसने अपने भीषण युद्ध से थोड़ी ही देर में समस्त राक्षस सेना को हरा दिया और फिर स्वयं रावण के पास जाकर उससे बोले - हे लंकाधिपति । तू बड़ा बुद्धिमान समझा जाता है | तुझे यह मूर्खता कैसे सूभी जो पर स्त्री का हरण कर उससे विषय सुख की इच्छा करता है । क्या तुझे मालूम नहीं है कि उसका स्वामी रामचन्द्र कैसा महापराक्रमी प्रतापी बीर है और उसका लघु आता लक्ष्मण भी ! क्या तू ऐसे वीर की स्त्री को लाकर अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करने की इच्छा रखता है ? कदापि नहीं। मुझे तो यह नितांत असम्भव मालूम होता है ।