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णमोकार म
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अपयश होगा । है महाभाग ! अन्याय करने से न लाभ हुआ है और न होगा। सुख के लिए धर्म सेवन करना उचित है । धर्म से सीता ही क्या उससे भी कहीं अच्छी मनोज्ञ सुन्दरी स्वयमेव धर्मात्मा पुरुषको अपना पति बनाती है । मुझे आशा तथा दृढ़ विश्वास है कि आप इस बुरी वासना को करने नि पृथक कर देंगे। देखिए रामचन्द्र यहाँ पहुचे हैं। वे अभी राजधानी से बाहर हैं। यदि मार उन्हें सीता को पगे तो ये वहीं से प्रसन्न होकर लौट जाएंगे और कुछ झगड़ा भी नहीं होगा अन्यथा ये तो अपनी प्रिया को लेने पाए ही हैं प्रत: उसे लेकर हो जाएंगे परन्तु इस अवस्था में अधिक हानि होने की संभावना है। अतएव परस्पर द्वेष न बढ़ तथा शान्ति हो जाए तो बहुत अच्छा होगा का एकमात्र उपाय सीता को वापिस देना ही है । यही मेरो आपसे प्रार्थना है। यागे पाप जो वही करें।"
विभीषण के समझाने का रावण के हृदय पर उल्टा असर पड़ा। उसे वालि के दोध गया। वह विभीषण से बोला- "रे पापी, दुष्ट, नौच ! तू मेरा भाई होकर भी मे श्रपादक है और रामचन्द्र जो कि न जाने कौन हैं, उनको प्रशंसा करता है। तुझे मुख से नहीं प्राती । मैं तेरे समान दुष्ट से इससे अधिक कुछ नहीं कहना चाहना और तुमसे गन्ध ही रखना चाहता हूँ । यस, खबरदार ! अब तूने मुख से कुछ शब्द निकाला तो मेरी और इसी में है कि यहां से निकल जा । श्रव तुझे इस पुरी में रहने का अधिकार नहीं ।"
विभीषण ने रावण के वाक्य सुनकर उत्तर में और कुछ न कह कर केवल उनसे कहा कि "अच्छा! मापकी जैसी इच्छा हो वैसा ही होगा। मैं भी ऐसी प्रतीति करने वाले राजा के अधिकार में नहीं रहना चाहता।"
इतना कह कर अपनी सब सेना को लेकर लंका से निकल गया और सुग्रीव से जाकर मिला। उसने अपने आने की यथार्थ वार्ता कह सुनाई । सुनकर सुग्रीव अत्यधिक नंदिता । उसी समय रामचन्द्र के पास जाकर बोला- "महाराज ! विभीषण रावण से लड़कर आया है।"
सुनकर रामचंद्र बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विभीषण से मिलने की इच्छा प्रकट की सुग्रीव जा कर विभीषण को बुला लाया। रामचंद्र और विभीषण को परस्पर कुशल वार्ता हुई। रामचंद्र ने विभीषण को गले से लगाकर उससे पूछा - "लंकाधिराज अच्छी तरह तो हो । अब तुम सय चिनाओं को छोड़ो मोर विश्वास करो कि तुम्हें लंका का राज्य दिलाया जायेगा ।"
विभीषण ने कहा --- "जैसा आप विश्वास दिलाते हैं वैसा ही होगा क्योंकि महात्माओं के वचन कभी झूठे नहीं होते हैं जैसे बाहर निकला हुआ हाथी दांत फिर भीतर नहीं घुसता ।
रामचंद्र ने फिर भी यही कहा- "तुम निश्चित रहो। सब अच्छा ही होगा ।" वानरवंशियों को विभीषण के अपने पक्ष में मिलने से अत्यन्त हर्ष हुआ | सच है सत्र के मिल जाने से किये आनन्द नहीं होता । जव विभीषण के रामचन्द्र से मिलजाने का वृत्तांत रावण को मालूम हुआ तब वह भी उसी समय संग्राम के लिए तत्पर हुआ और अपने शूर बीरों को भी तत्पर होने की आज्ञा दी । स्वामी की प्राज्ञा पाते हो जिसने वीर योद्धा थे वे सब रावण के निकट आकर उपस्थित हुए। जब रावण ने देखा कि सब वीर लोग इकट्ठे हो गये हैं तो वह उसी समय अपनी सब सेना साथ लेकर बन्दीजनों के द्वारा अपना यशोगान सुनता हुया लंका से युद्ध के लिए चल पड़ा। उधर रामचन्द्र ने जब सेना का कोलाहल सुनकर यह जान लिया कि रावण भी सेना लेकर युद्ध भूमि में आ रहा है तब रामचन्द्र ने भी अपने वीरों को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही सेना तैयार हुई। तब वे