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णमोकार ग्रंथ
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है। प्राप इसे एकांत में ले जाकर पूछ लीजिए।" रामचन्द्र ने उसे एकान्त में ले जाकर पूछा तब उसने जंसा देखा था और जैसी अपने पर आपत्ति आई थी यह सब सुनाई। रामचन्द्र ने रावण के इस कृत्य पर उसे परोक्ष में बहुत धिक्कारा और कहा-"रे नीच कुल संक ! देख तेरी वीरता जो पर प्रिया को हरण कर सुख से जीता रह सकेगा।" साथ ही अपने सैनिकों को प्राशा दी कि "सैनिको! संग्राम की तैयारी करो । आज ही हमको सीता को छुड़ा लाने के लिए रावण पर युद्ध के लिए चढ़ना है।"
सुनकर वीर सैनिकों ने उत्तर में निवेदन किया-"महाराज! वह कोई साधारण पुरुष नहीं है । प्रतएव प्रथम यह बात जानना अत्यावश्यक है कि सीता यथार्थ में वहां है या नहीं ? है तो कहो, किस स्थान पर है और रावण इस समय किस काम पर लगा हुआ है ? यह जानकर हो फिर यथोचित उपाय करना चाहिये ।" रामचन्द्र ने उनका कहना स्वीकार किया और प्रथम सब वृतात
की माशी मनापाने रहात होकर हनुमान को बुलाया। हनुमान रामचन्द्र के पादेश को पाकर उसी समय उपस्थित होकर परम विनम्रता से रामचन्द्र तथा सुग्रीव आदि से मिला और बोला "महाराज ! कहिये क्या प्राशा है ?"
रामचन्द्र ने उसकी विनम्रता की प्रशंसा करते हुए एकांत में ले जाकर अपनी निशानी के रूप में अपनी मुद्रिका देकर कहा-"कि देखो, इसे जनकनन्दिनी के प्रागे रखकर कहना कि रामचन्द्र तुम्हारे वियोग में बहुत दुःखो हैं । उन्हें रात-दिन चैन नहीं पड़ता है। वे तुम्हें छुड़ाने का प्रयत्न कर रहे हैं। तुम चिन्ता न करना।"
इतना कह कर हनुमान को वहाँ से विदा किया। हनुमान रामचन्द्र के चरणों में नमस्कार करके संका की ओर चले गये। मार्ग में भीषण उपद्रवों का निराकरण करते हुए लंका में पहुंचे । वहाँ पहुंच कर वहां के निवासी मनुष्यों से सीता का पता निकाल कर जहाँ सीता ठहराई गयी थी. उसो उपवन में पहुंचे और एक वृक्ष पर चढ़कर गुप्त रूप से वहाँ का वृत्तांत देखने लगे। उन्होंने देखा कि कामी रावण ने मंदोदरी प्रादि रानियों को सीता के पास भेज रखा है। वे उससे कह रही थीं कि-'हे जनकनन्दिनी ! देख ! रावण सर्व गुण विद्याओं का स्वामी, तीन खंड का अधिपति तथा सम राजा-महाराजाभों का शासक है । उसके एक से एक सौन्दर्य युक्त हजारों रानियां ई सथापि वह जी-जान से तुझ पर मुग्ध हो गया है । तुझे अपना प्रत्पन्त पुण्योदय समझना चाहिये कि आज वह तुभी अपनो समस्त प्रियानों के मध्य प्रधान पटरानी बनाना चाहता है। तू स्वयं विचार कर देख कि त्रिखंडाधिपति रावण को प्रियतम बनाने से सुख प्राप्त हो सकता है या एक साधारण प्रल्प भूमि के अधिकारी भूमिगोचरी मनुष्य को बनाने से । हम यह नहीं चाहती कि तुझे किसी प्रकार का दुख उठाना पड़े। हम तो सब तेरे सुख के लिए ही तुझसे इतना कुछ कह रहीं हैं । तुझे तो अपने लिए बड़ी खुशी का दिन समझना चाहिये जो अपनी एक से एक रूपयान अठारह हजार पानियों को छोड़कर विद्याधरों के स्वामी का हृदय तुझ पर न्यौछावर हुमा जाता है और जिसमें तुझे प्रासन भो ऊंचा दिया जायेगा प्रतएव तू व्यर्थ रोकर अपने विस को क्यों कष्ट देती है ? रामचन्द्र से तुझे इतना सुख नहीं मिल सकता जितना रावण को प्रियतम बनाने से उठायेगी।
इस प्रकार और भी बहुत सी बातें मंदोदरी सीता से कहती रही। सीता को मंदोदरी के ऐसे लज्जाशूम्प पचन सुनकर बहुत क्रोष पाया । वह उसे स्किार कर बोली-"हेमंदोदरी! तेरी तो पतिव्रता स्त्रियों में बहुत प्रशंसा सुनती पी पर ये प्राण नदी का प्रवाह उल्टा कैसे तुझे ऐसे निर्मज