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नमोकार प्रेष
२२१ हो गया है और इसका नाम दंडकवन क्यों पड़ा है? तब मुनिराज बोले-सुन रामचन्द्र । इस देश के राजा का नाम था-दंडक । वह बड़ा तेजस्वी था। सारी पृथ्वी पर 'उसकी प्रसिद्धि हो रही थी। फिसो समय उसके राज्य में बहुत से दिगम्बर मुनि प्राए । पापो दण्डक ने उनके नग्न रूप को देखकर उनसे बरी घणा की और इसी घ्रणा के कारण उसने उन सब मुनियों को पानी में पेल दिया। उनमें से एक मुनि संघ के बाहर रह गये थे अतः जब वह मुनि पाए और नगर में प्रवेश करने लगे तो नगर निवासी मनुष्यों ने पूर्व मुनियों का पानी में पेलने का बतान्त कहकर उनसे नगर में जाने की प्रार्षना की मुनिराज साधुनों पर किए गए ऐसे अत्याचार की बात सुनकर बड़े क्रोधित हुए और क्रोष के आवेश में भरे हुए राजा के पास पहुंचे और बोले-रे दुष्ट पापी ! क्या हमारे निरपराध संघ को तूने ही मरवाया है । देख ! तू मब अपनी जीवन यात्रा को कैसे सुख से बिताता है।
इस विषम कोप के साथ ही उनके वामस्कंध से पुरुषाकार एक तेजोमयी मूर्ति निकली और देखते-देखते राजा, प्रजा, पश्व प्रादि सबको भस्म कर साथ ही मुनिराज को भी भस्म कर दिया। राजा ने किए के अनुसार ही फल पाया और नरक में गया ! वहो नाना प्रकार के दुख भोगकर नरकायु पूर्ण कर प्रब जटायु का जीव हुआ है। यह तो इस स्थान के सुनसान होने का कारण है और इसके राजा का नाम दंडक होने से इसका नाम दंडक वन पड़ा। यह सब मुनि शाप का फल है ।
मुनि के द्वारा अपने पूर्व भव का बृतान्त सुनकर पक्षी को बहुत दुख दुगा। वह मूछित होकर शाखा पर से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे पड़ा हुमा देखकर सीता को बहुत दया आई। उसने उसी समय उठकर पक्षो के ऊपर ठंडा जल छिड़का। कुछ समय पीछे उसकी मूर्छा दूर हो गयो । सचेत होकर
रकता-सरकता मुनि के चरणारविन्दों में जा पहा और अपनी मात्रभाषा में बोला -स्वामी कृपानाथ मझ अनाथ, दोन पशु पर भी कुछ कृपा कीजिए जिस में मैं कुछ अपना मात्म कल्याण कर सकू। मेरा चित्त इस संसार दुख से बहुत भयभीत हो रहा है। मुनिराज ने जटायु की इस दशा को देखकर उसे सम्यकत्व ग्रहण करने का उपदेश दिया। जटायु ने मुनिराज की माज्ञा प्रमाण सम्यकत्व ग्रहणकर पंचाणुव्रत ग्रहण किए और जीवहिंसा का परिहार कर धर्म को मोर चित्त को लगाया। तत्पश्चात मुनिराज भी अपना उपदेश देकर वहां से विहार कर गये। सीता को जब यह ज्ञात हुआ कि इस पक्षी ने जीव हिंसा का त्याग किया है एवं इसकी जीवन रक्षा होना कठिन है तो वह स्वयं उसका पालन पोषण करने लगी।
तदन्तर संध्या के समय भाई से प्राशा लेकर लक्ष्मण यह देखने निकले कि इस वन में कहीं हिंसक जीवों का निवास तो नहीं है। वे निर्भीक पले पा रहे थे कि इतने में उनके समीप एकाएक सुगंध मिश्रित पवन आई। लक्ष्मण भी उसी पोर चल दिए जिस मोर से सुगन्ध पा रही थी। थोड़ी दूर जाकर उन्होंने देखा कि एक गहन वास के बाहर के ऊपर केसर, चन्दन प्रादि सुगन्धित द्रव्यों से लिप्स तथा अन्य प्रकार के पुष्पों से सजा हुमा याद्रहास नाम का खड्ग लटका हुआ है। उन्होंने कौतुकवश उसे हाथ में ले लिया और उसे पलाना चाहा उन्हें न तो यह माल स था कि इस बांस के बीहड़ में कोई ध्यान लगाए हुए बैठा है और न खड्ग की दाकिा का ही परिचय था अतः खड्ग के बलाते ही बांस का बीहड़ और उसमें ध्यानावस्थित शंबूक कट कर गिर पड़ा। तत्पश्चात वह खड्ग उनका वंश कर उल्टा ही लक्ष्मण के हाथ में प्रा गया। खड्ग लेकर लक्ष्मण वहां से चल दिए पोर अन्य स्थान पर जा ठहरे। शंबूक कौन था और किसका पुत्र था उसको कथा इस प्रकार है