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णमोकार ग्रंथ
अनुभाग बंध वर्णन -
कषायों की तीव्र मंदता के अनुसार कर्म वर्गेणाओं में जो फलदायक तीव्र मन्द शक्ति का उत्पन्न होना है वह अनुभाग बंध है । वह फल दान शक्ति कर्मों को मूल प्रकृति तथा उत्तर प्रकृति उत्तर प्रकृतियों के नामानुसार ही होती है जैसे ज्ञानावरण का फल ज्ञान का याच्छादन करना दर्शनावरण का फल दर्शन का आवरण करना है इसी प्रकार मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों में जैसा जिसका नाम है वैसी ही फल शक्ति जाननी चाहिये ।
इन प्रकृतियों में बंध उदय आदि ये दस अवस्थाएं होती हैं
छप्पय
जीवकरम मिली बंध वेय रस तास उवं मति, जद्दीरमा उपाय रहें अब लो ससा गनि, उत्करसन थिति बढ़ें घंटे प्रपकरसन कहियत, संकरमन पर रूप उवीरन बिन उपसम मत संक्रमण, उदोरन बिन निधत घट बढ़ उदरन संक्रमण, तिबंध बस भिन्न पद जानि मन
अर्थात्
(१) राग द्वेष, मिथ्यात्व आदि परिणामों से जो पुदगल द्रव्य का ज्ञानावरण यादि रूप होकर श्रात्मा के प्रदेशों से परस्पर सम्बन्ध होना है वह बन्ध है ।
(२) अपनी स्थिति पूरी करके कर्मों का फल देने के सन्मुख प्राप्त होना उदय है ।
(३) तप आदि निमित्तों से स्थिति पूरी किए विना अपकर्षण के बल से कर्मों का उदयावली काल प्राप्त करना उदीरणा है ।
(४) बंधकाल से स्थिति काल पर्यंत जब तक उदय, उदीर्णादि दूसरे भेद का प्रवर्तन न हो उस अवस्था का नाम सत्ता है ।
(५) कर्मों के निमित्त से कर्मों की स्थिति व अनुभाग का बढ़ना उत्कर्षण है ।
(६) स्थिति व अनुभाग का कम हो जाना श्रपकर्षण है ।
( ७ ) श्रायु कर्म के बिना शेष सात कर्मों की किसी एक बंध रूप प्रकृति की दूसरी प्रकृति में परिणमन हो जाना संक्रमण है ।
(८) कर्मों का उदय व उदीरणा रहित सत्ता में स्थिर रहना उपशम है ।
(६) जो कर्म संक्रमण व उदयावलि में प्राप्त न हो वह नियंत्त है।
(१०) जिस कर्म की उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण चारों ही अवस्थायें न हों वह निकांचितकरण ( अवस्था ) है ।
इस प्रकार बंध की दस अवस्था जिनेन्द्र भगवान ने कही है इस प्रकार बंध तत्व का वर्णन किया मागे संवर तत्व का वर्णन करते हैं ।
संवर तत्व का वर्णन -
श्रास्त्रवों का निरोध करना संवर है। वह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। कम स्त्रव के निरोध करने को कारण भूत व्रत और समित्यादि के पालन रूप में परिणाम हो जाना भाव