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णमोकार ग्रंथ
है । अतएव आप मुझसे घर पर चलने का आग्रह न करके अब मुझे शीघ्र ही उस अखंड अविनाशी चिरस्थायी सच्चा पात्मीक सुख प्राप्त करने की सीढ़ी जिनदीक्षा लेने की प्राज्ञा दीजिए क्योंकि प्रयम तो इस काल में प्रयु ही बहुंत न्यून है और उसमें से बहुंत भाग तो पहले ही व्यतीत हो चुका और शेष भी पब पल, घड़ी, पहर, दिन, पक्ष, मासादि करके व्यतीत होता जाता है तथा गया हुंग्रा समय कोटि प्रयत्न करने पर भी वापिस नहीं आ सकता। इसलिए अब विलंब करना उचित नहीं हैं । आशा हो जिन
(णा कामाश्रय ग्रहण करूगा । सुनिये, अब से मेरा कत्तव्य होगा कि मैं सदंब वन में रहकर मुनि मार्ग पर चलता हुआ निर्दोष शुद्ध पाहार अपने पाणि पात्र में लूंगा। निजात्मध्यान में लवलीन हो प्रात्म-हित करूंगा। मुझे अब यह संसार दुःखमय और केलि के स्तम्भवत् निस्सार मालूम पड़ता है । इसलिए मैं जानबूझ कर अपने को दुःखों में फंसाना नहीं चाहता क्योंकि हाथ में दीपक लेकर भी यदि कोई कूप में गिरना चाहे तो उस दोपक से क्या लाभ ? मुझे अक्षरों का ज्ञान है । और संसार की लीला से भी परिचित हूं। इतना होते हुए भी यदि मैं इसमें फंसा रहूं तो मुझ जैसा कौन मूर्ख होगा? मैं प्रापकी प्राज्ञा का उल्लंघन कर विरोध कर रहा हूं अतः मुझे आप क्षमा कीजिए।"
ऐसा कह पिता को नमस्कार कर वारिषेण उसी समय वन की ओर चल दिए और सुखदेव मुनि के पास जाकर उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। तपस्वी बनकर वारिषेण मुनि बड़ी दृढ़ता के साथ मुनियों का चारित्र निरतिचार पालन करते हुए कठिन से कठिन तपश्चर्या करने लगे । वे अनेक देश विदेशों में घूमकर धर्मोपदेश करते हुए एक बार पलाशकूट नामक नगर में पहुंचे। वहाँ उस नगर में श्रेणिक का.मन्त्री अग्निभूति रहता था। उनके पुत्र का नाम पुष्पडाल था । वह बहुत धर्मात्मा थापौर दान, पूजा, व्रत आदि शुभ कार्यों में सदैव तत्पर रहता था। वह वारिषेण मुनि को भिक्षार्थ आते हए देखकर प्रसन्नतापूर्वक उनके सम्मुख पाया और भक्तिपूर्वक आह्वान कर उसने नवधाभक्तिपूर्वक हर्ष के साथ मुनि को प्रासुक भोजन कराया । आहार करके जब वारिषेण मुनि वन में जाने लगे तब पुष्पडाल मन्त्रो पुत्र भी कुछ तो भक्ति से, कुछ बाल्यावस्था की मित्रता के सम्बन्ध से और कुछ राजपुत्र के लिहाज से थोड़ी दूर उन्हें पहुँचा पाने के लिए अपनी स्त्री से पूछ कर उनके पीछे-पीछे चल दिया । दूर तक जाने
इच्छा न होते हुए भी वह मुनि के साथ-साथ चला गया क्योंकि उसे विश्वास था कि थोड़ी दूर जाने के पश्चात वे मुझे लौट जाने के लिए कहेंगे ही, पर मुनि ने उससे कुछ नहीं कहा तो उसकी चिन्ता बढ़ गई। उसने मुनि को यह समझाने के लिए कि मैं नगर से अधिक दूर मा गया हूँ, मुझे घर पर शीघ्र वापिस जाना है, कहने लगा-कुमार ! यह वही सरोवर है जहां हम मौर आप खेला करते थे । यह वही छायादार और उन्नत आम्रवृक्ष है जिसके नीचे पाप और हम बाललीला का सुख लेते थे।
इस प्रकार के अपने पूर्व परिचित चिन्हों को बार-बार दिखलाकर पुष्पडाल ने मुनि का ध्यान अपने दूर निकल गाने को प्रोर माकर्षित करना चाहा. पर मनि उसके इदय लौट जाने को न कह सके क्योंकि उनका वैसा मागं नहीं था। इसके प्रतिकूल उन्होंने पुष्पडाल के कल्याण की इच्छा से उसे खूब वैराग्य का उपदेश दे देकर जिन-दीक्षा दे दी। पुष्पडाल मुनि हो गया पौर संयम का पालन करने लगा। वह शास्त्राभ्यास भी करने लगा परन्तु तब भी उसकी विषय वासना मिटी नहीं। उसको बार-बार अपनी स्त्री स्मरण आने लगी। भाचार्य कहते हैं कि
विक्कामं विङ् महामोहं बिङ भोगान्यस्वसबंचितः । सन्मार्गोपि स्थितो जन्तुमहानाति निहितम् ।