________________
णमोकार ग्रंथ
उनके मृतक कलेवर के उसी में रहने से उनके भक्षण करने से मांस दोष और भक्षण करने रूप प्रति उत्कट इच्छा होने से राग रूपो भाव हिंसा अवश्य होती है । इसीलिए हरे और सूखे दोनों प्रकार के पंच उदम्बर फल त्याज्य हैं । जिस प्रकार पंच उदम्बर फल हरे पौर सूखे दोनों प्रकार से त्याज्य हैं उसी प्रकार मद्य, मांस, मधु को भी रस सहित और रसरहित दोनों को प्रभक्ष्य एवं हिंसामय होने से धार्मिक सज्जन पुरुषों को सर्वथा त्यागने योग्य हैं । इनके अतिरिक्त जिनमें बस जीवों की उत्पत्ति होती हो ऐसे सभी फलों का गीली, सूखी दोनों प्रयस्थानों में भक्षण करना सर्वथा छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार सड़े, घुने हुए अनाज को भी स जीवों की हिंसामय होने से छोड़ देना चाहिए क्योंकि उसके भक्षण करने से मांस भक्षण के समान दोष पाता है इसलिए धार्मिक पुरुषों को ये त्याज्य हैं। रात्रि भोजन दोष---
जिस प्रकार अहिंसा धर्म पालन करने के लिए धर्मात्मा पुरुष मद्य प्रादि प्रष्ट पदार्थों का त्याग करते हैं उसी प्रकार उन्हें निषिज और हिंसा का कारण होने से रात्रि भोजन का भी अवश्य त्याग कर देना चाहिए क्योंकि रात्रि में भोजन करने से दिन में भोजन करने की अपेक्षा अधिक जीवों का घात होता है। कारण कि रात्रि को गोबन हुन्दाने में मान्यतः - लिस्ट ने बाड़े हत सूक्ष्म जाति के जीव, घृत, जल, साग, चून श्रादि में पड़ जाते हैं तथा तैयार किए हुए भोजन में मिल जाते हैं और यह सब खाने में आते हैं उससे बड़ा पाप बंध होता है । जीव हिंसा का पाप लगता है। मांस भक्षण का दोष पाता है। इसके अतिरिक्त रात्रि में भोजन बनाने से, आग जलाने से, वर्तनों के धोने से अन्धकार व थोड़े प्रकाश में न दिखने वाले जल में स्थित जीवों का विध्वंस होता है तथा धोवन का जल जहां तहां रात्रि में जीव जन्तु न दिख पड़ने के कारण डाल देने से वहां की चींटी, मच्छर प्रादि बहुत से जीवों की हिसा होती है । इसके अतिरिक्त जिस वस्तु के खाने का त्याग कर रखा है वह भी यदि भोजन में मिल जाए तो रात्रि में उसकी परीक्षा करना असंभव हो जायगा और विना पहचाने खाली जाएगी तो प्रतिज्ञा भंग का दोष होगा। रात्रि में अच्छी तरह न दिखने के कारण इस अनिवारित हिंसा (पाप) के अतिरिक्त रात्रि भोजन करने वालों की शारीरिक नीरोगता में भी बहुत हानि होती है। जू खाने से जलोदर रोग हो जाता है, मकड़ी खा जाने से कुष्ट रोग हो जाता है, मक्खी खा जाने से वमन हो जाती है, केश (बाल) खा जाने से स्वर भंग हो जाता है, कीड़ी खा जाने से पित्त निकल पाता है तथा विषभरी (छिपकली) के विष से प्रादमी तक मर जाता है। इस प्रकार के अनेक दोषो से कलंकित रात्रि भोजन करने वाला पुरुष इस लोक में अनेक जीवों को हिंसा के पाप से मनेक दुर्गतियों में भ्रमण करता हुमा अनन्त दुःख भोगता है। अनेक दोषों से भरी हुई इस रात्रि में जब देव कर्म, स्नान, प्रदान आदि सत्कर्म नहीं किए जाते हैं तो फिर भोजन करना कैसे सम्भव हो सकता है अर्थात् कभी नहीं । बसुनंदि श्रावकाचार में स्पष्ट कहा है कि रात्रि में भोजन करने वाला पुरुष किसी भी प्रतिमा का धारी नहीं हो सकता प्रतएव धार्मिक पुरुषों को सूर्योदय से एक मुहूर्त दिन चढ़ने के पश्चात् सवेरे और एक मुहूर्त सूर्य अस्त से पहले शाम को भोजन कर लेना चाहिए। शेष काल में भोजन करमा तथा दिन में अंधेरे क्षेत्र (जहाँ पर अंधकार रहता हो) व काल (यथा मांधी माने के समय) में भोजन न करना चाहिए, ये रात्रि में भोजन करने के समान है। यथा
विवसस्यमुखेचान्ते, मुक्त्वा हुने सुमामिकः ।
घटिके भोजन कार्य, श्रावकाचार चुमिः।। धर्मारमा धावकों को सवेरे और शाम को प्रारम्भ पौर मम्त की दो-दो पड़ी छोड़कर भोजन