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गमोकार ग्रंप
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अर्थ-जिस प्रकार जल में तेल, मुखों में गुप्त वार्ता, सत्पात्र के प्रति दिया हुआ दान मुख्यतया वस्तु की शक्ति की अपेक्षा अल्प भी बहत्वता को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार बिशुद्ध बुद्धि पवित्रात्मा शिष्य के प्रति दिया हुया शास्त्र ज्ञान बुद्धि की निर्मलता से विस्तृतता को प्राप्त हो जाता है। पूर्ण विद्वान पौर धनी होकर भी उसे अभिमान का स्पर्श तक भी न हुआ था। वह निरन्तर लोगों को धार्मिक बनाने के प्रयोजन से धर्मोपदेश का श्रवण कराता और लिखाता पढ़ाता था। इसमें गुणों की सत्ता देख कर पोलस्य, ईर्ष्या, मत्सरता प्रादि दुर्गुणों ने इसके निकट अपने सजातियों का प्रभाव देखकर इसके समीप से भी निकलना बन्द कर दिया था यह सब से प्रेम करता और सबके सुख दुःख में सहानुभूति रखता था। इसी कारण इसको सब छोटे बड़े एकचित्त होकर चाहते थे। महाराजा जयसेन भी इसकी सज्जनता, परोपकारिता और उदारशीलता को देखकर बहुत प्रसन्न होते थे और स्वंय इसका वस्त्राभूषणों से आदर सत्कार कर इसकी प्रतिष्ठा बढ़ाते । यद्यपि प्रीतिकर को धन सम्पदा प्रादि किसी प्रकार कमी न थी परन्तु तब भी अपने मन में विचार किया कि कर्तव्यशीलों का यह काम नहीं कि वे बैठे-बैठे अपने पिता व पितामह आदि की संचय की हुई सम्पत्ति पर मानन्द उड़ाकर पालसी और कर्तव्यहीन बने अतएव मुझको वित्तोपार्जन करना चाहिए, कोई यल करना चाहिए।
यह विचार कर उसने प्रतिज्ञा की जब तक मैं अपने बाइबल से कुछ द्रव्य संग्रह न कर लंगा सब तक में अपना विवाह न कराऊंगा। ऐसी प्रतिज्ञाकर अपने माता पिता तथा गरुजनों को नमस्कार कर उनसे प्राज्ञा ले विदेश गमन को चल पड़ा । कितने ही वर्षों तक उसने विदेश में रहकर नीति तथा म्याय पूर्वक बहुत धन सम्पत्ति का उपार्जन किया और साथ में यश भी संपादन किया । अपने घर से आये बहुत दिन हो जाने के कारण अपने माता-पिता उसे स्मरण पाने लगे। तब यह वहां बहुत दिन ठहरकर अपना सब सामान लेकर अपने घर को वापिस लौट प्राया। प्रीतिकर अपने माता-पिता से मिला। इसके विदेश से आने का समाचार सुनकर समस्त बन्धु वर्ग तथा नगर निवासियों को बहुत मानन्द हुआ। महाराजा जयसेन ने प्रीतिकर की पुण्यवाणी और प्रसिद्धि सुनकर इस पर अत्यन्त अनुराग कर अपनी कन्या पृथ्वीसुन्दर और एक अन्य देश से प्राई हुई वसुन्धरा तथा और भनेक सुन्दर रूपवती राजकुमारियों का इस महा भाग्यशाली वेष्ठि पुत्र के साथ विवाह कर दिया और इनके साथ अपना प्राधा राज्य भी इसे दे दिया। प्रयान्तर प्रीतिकर को पुण्योदय से जो राज्य विभूति प्राप्त हुई उसे वह सुखपूर्वक भोगने लगा।
उसके दिन प्रानन्द और उत्सव के साथ बीतने लगे । अनेक प्रकार के भोगोपभोगों को यथाचित्त सेवन करता हुमा विषय भोगों में प्रत्यासक्त न होकर निरंतर जिन भगवान का अभिषेक पूजन करता था और शास्त्र स्वाध्याय में समय बिताता था जो स्वर्ग या मोक्ष सुख का देने वाला पौर अशुभ कर्मों का नाश करने वाला है । वह श्रद्धा भक्ति प्रादि सप्त गुणों से युक्त नवधा भक्ति पूर्वक सत्पात्रों को दान देता तथा दीन दरिद्रों, अंगहीन पुरुषों को करुणापूर्वक दान देता था जो दान इस लोक परलोक दोनो भवों में महान सुख का कारण है । वह जिन मन्दिरों, जिन प्रतिमाओं, तीर्थ क्षेत्रों मादि सप्त क्षेत्रों को जो शांति रूपी धान के उपजाने में कारण है उनकी यावश्यकतामों को अपने धन रूपी जल वर्षा से पूरी करता था पौर परोपकार करना तो उसके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था। स्वभाव में बड़ा कोमल था। विद्वानों से उसे प्रेम था इस कारण लौकिक, पारलौकिक दोनों लोक सम्बन्धी कार्यों में सदा तत्पर रहता और प्रजा का प्राणों के समान रक्षण करता था। प्रीतिकर इस प्रकार मानन्द मोर उत्सव के साथ समय बिताने लगा।