________________
१७४
णमोकार ग्रंथ करना चाहिए । इस प्रकार रात्रि भोजन करना उत्तम जाति और धर्म कर्म को दूषित करने वाला तथा दुर्गति एवं नाना प्रकार के दुःखों का दाता जानकर इसे सर्वथा त्यागने योग्य है । अब रात्रि भोजन के त्याग करने से उत्तम फल को प्राप्त करने वाले प्रीतिकर कुमार की कथा लिखी जाती है :
इस ही भरत क्षेत्र के आर्य खंड में एक मगध नाम का देश है । उसमें सुप्रतिष्ठपुर नाम का एक बहुत प्रस्सिार सुन्दर मारा। बह सम्पत्ति और अनुपम सुन्दरता से स्वर्गपुरी की शोभा को जीतता था । जिस समय का यह उपाख्यान है उस समय इसके राजा जयसेन थे। वे धर्मज्ञ, राजनीति निपुण, न्यायी, यशस्वी, महाबली और प्रजाहितैषी थे मोर वहां अनेक धीमान श्रेष्ठि (सेठ) निवास करते थे । वहां एक धनमित्र नाम का सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम धनमित्रा था। दोनों ही की जैन धर्म पर प्रखंड प्रीति थी। एक दिन सागर सेन नाम के प्रयधिज्ञानी मुनि को निर्दोष, शुद्ध यथा विधि नवधा भक्ति सहित प्रासुक आहार देकर इन्होंने उनसे पूछा हे नाथ ! हमें पुत्र सुख होगा या नहीं । यदि न हो तो म व्यर्थ आशा करके अपने दुर्लभ मनुष्य जीवन का संसार की मोह माया में फंस कर दुरुपयोग क्यों करें? फिर क्यों न पापों का नाश करने वाली जिन दीक्षा को ग्रहण कर प्रात्म कल्याण करें? मुनि ने इनके प्रश्न के उत्तर में कहा-तुम्हारा अभी दीक्षा ग्रहण करने का समय नहीं पाया है तुमको अभी कुछ दिन और गृहवास में रहना पड़ेगा क्योंकि तुम्हारे एक महाभाग, कूलभूषण, धर्मधुरंधर, महातेजस्वी पुत्ररत्न उत्पन्न होगा जो इस मोहजाल को तोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण करके अनेक प्राणियों का उद्धार करता हुआ शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा कर्मकाष्ठ को भस्म कर स्वात्मानुभूतिरूपि सच्चे सुख निर्वाण को प्राप्त करेगा। अवधिज्ञानी मुनि की यह भविष्यवाणी सुनकर उस दम्पति को असीम आनन्द हुआ। उस दिन से ये दोनों सेठ-सेठानी अपना समय जिन पूजन, स्तवन, अभिषेक, सत्पात्रदान करुणादान आदि धार्मिक कार्यों में विशेषता से व्यतीत करने लगे।
___इस प्रकार प्रानन्द और उत्सव सहित कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् धनमित्रा ने एक प्रतापी पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। मुनि की भविष्यवाणी यथार्थ हुई। पुत्ररत्न के उपलक्ष्य में सेठ ने बहुत उत्सव किया याचकों को दान दिया। भगवान को नाना प्रकार की पूजा और धर्म प्रभावना कराई। सज्जन, सुहृदय इत्यादि पुरुषों का भी यथायोग्य सम्मान किया गया। इसके जन्म से बन्धु बान्धवों को बड़ा प्रानन्द हुमा । अनेक प्रकार मंगलगान होने लगे। इस नवजात शिशु को देखकर सबको प्रत्यन्त प्रीति हुई । इसीलिए इसका नाम प्रीतिकर रख दिया गया । प्रब ये बालक दिन-प्रतिदिन शुक्ल द्वितीय चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा। इसकी सुन्दरता इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि इसके रूप को देखकर बेचारे कामदेव को भी नीचा मुंह कर लेना पड़ता पा मोर स्वभाव सिद्ध कांति को देखकर लग्ना के मारे बेचारे चन्द्रमा का हृदय काला पड़ गया। तेज से सूर्य की समानता करने वाला, ऐश्वर्यवान भाग्यशाली, यशस्वी पौर महाबली था क्योंकि वह परम शरीर का धारी अर्थात् इसी भव से मोक्ष याने वाला था। जब प्रीतिकर पांच वर्ष का हो गया तब इनके पिता घनमित्र श्रेष्ठि ने इसको अध्ययन कराने के लिए एक सुयोग्य गुरु के माधीन कर दिया। एक तो पहले ही उसकी बुद्धि डाभ की पनी के समान बड़ी तीक्ष्ण थी और फिर इस पर गुरु की कृपा हो गई इससे ये पोड़े ही समय में पढ़ लिखकर अच्छा विद्वान बन गया। कितने ही शास्त्रों में इसकी प्रवाष प्रवति हो गई। गुरु सेवा रुपी नाव द्वारा इसने शास्त्ररूपी समुद्र का प्रायः भाग पार कर लिया । नीतिकार ने बहुत ठीक कहा है
___ जले तेल पते गुहा, पात्र वानमनागपि । प्राले हार स्वयं याति, विस्तारं बस्तु शक्तितः॥