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णमोकार प्रय
एक दिन पचपुर के सेठ धनपाल ने देवयोग से द्रव्योपार्जन करने के लिए देशांतर जाने का विचार किया और वहाँ से चलकर इस बनारस नगर में पाया। चित्त में विचारने लगा कि अपना धन धरोहर किसके यहाँ रखू ? उसने वहां के लोगों से पूछा तब निर्णय हुमा कि सत्यघोष नाम का पुरोहित निष्कपट मौर महासत्यवादी है । धनपाल लोगों के कथनानुसार सत्यघोष के पास गया और सविनय निवेदन करके बोला- महाराज । मैं आप को सेवा में इसलिए प्राया हूँ कि मेरे पास पांच पांच करोड़ के चार रत्न है । मैं उन्हें वस्त्र में बाँध कर आपको सौंप देता हूँ। पाप सावधानी से इनकी रक्षा करें। यदि दैवयोग से मुझे कदाचित धनहानि उठानी पड़ी तो मैं इनसे अपनी जीवन-लीला सुखपूर्वक व्यतीत कर सकूगा । धनपाल पुरोहित के पास अपने रत्नों को रख कर विदेश गमन के लिये चला गया। वह
रह वर्ष तक विदेश में रहा । उसने वहां व्यापार के द्वारा बहुत सा धन अजित किया। जब वह जहाज से वापस पा रहा था तो देव के दुविपाक से उसका जहाज मार्ग में फट गया अर्थात टक्कर खाकर टुकड़े टुकड़े हो गया। उस बेचारे का समस्त धन जहाज के साथ ही डूब गया परन्तु उसे एक लकड़ी का टुकड़ा हाथ लग गया जिससे वह उसके प्राश्रय से कठिनाइयों को उठाता हुमा समुद्र के तट पर प्राकर अपने नगर में मा गया। उसने जिन मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन कर उनका गुणानुवाद किया और मार्ग जनित श्रम की निवृत्ति के लिए दो दिवस पर्यंत वहीं ठहरा । तीसरे दिन यह पुरोहित महाराज के पास पहुंचा। पुरोहित जी महाराज सेठ को देशांतर से उल्टा पाया जान झट से चलकर अपने सभानिवासी मनुष्यों से कहने लगे—'देखो, शकुन के द्वारा जाना जाता है कि प्राज मुझको कोई बड़ा भारी कलंक लगेगा। बेचारे सभास्थित सरल स्वाभावी मनुष्यों ने उसके हृदय स्थित कपट को न जानकर कहा'महाराज! पाप तो महासत्यवादी हैं । भला पाप को कैसे कलंक लग सकता है।' लोग यह कह ही रहे थे कि इतने में मलिन वस्त्र पहने हुए धनपाल वहीं उपास्थित हो गया और नमस्कार करने के प्रमन्तर अपना समस्त वृत्तान्त निवेदन कर कहने लगा-"महाराज पाप मेरी पमानत वस्तु दे दीजिए।" कुछ न सनने की चेष्टा दिखाते हए सत्यघोष ने कहा-"भाई ! देव की गति विचित्र है। जैसा भाग्य त्य होता है वैसा ही भोगना पड़ता है। अच्छा, ठहरो, तुम्हें कुछ दान दिये देता हूं जिससे तुम फिर अपना प्रबन्ध कर लेना।"
पुरोहित का कहना सुनते ही सेत का रहा-सहा धैर्य भी आता रहा और कहने लगा--"महाराज! यह माप क्या कहते हैं ? मुझे तो श्राप के वान की आवश्यकता नहीं है। आप तो केवल मुझे मेरे रत्न दीजिए।'
रत्नों का नाम सुनने ही सत्यघोष के कपट-क्रोध का कुछ ठिकाना नहीं रहा। वह लाल प्रांखें बनाकर बोला-"देखो, यह कैसा झूठ बोल रहा है। मैंने तुम लोगों से पहले ही कहा था कि मुझको माज का दिन अच्छा नहीं है। यही होकर रहा ।
तत्रस्थित मनुष्यों ने भी हां में हां मिलाकर कहा-"महाराज! वेचारे का सब धन नष्ट हो गया है। उसी के कारण यह विक्षिप्त-सा मालुम होता है क्योंकि धन के नष्ट हो जाने से बुद्धि ठिकासे नहीं रहती । श्रम सा हो गया है।"
बेचारे धनपाल को सभी ने विक्षिप्त ठहरा कर घर के बाहर निकलवा दिया। तब धनपाल ने राधा के पास जाकर पुकार करी। अपना सब बृत्तांत कह सुनाया। परन्तु उसका भी कुछ फल नहीं हुमा । सब उसे ही विक्षिप्त बताने लगे। निदान धनपाल को उसी दुखी दशा में लौट पाना पड़ा।