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णमोकार पंथ
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मध्य लोक का स्वर्ग कहा जाता था। वहाँ समस्त देश में बहुषा विशेषतया जैनधर्म का प्रचार था। उसे प्राप्त कर सर्वसाधारण सुख शान्ति का लाभ करते थे। उस समय उसके राजा श्रेणिक थे। श्रेणिक धर्मज्ञ उदार मन, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी और बड़े विचारशील थे। जैनधन और जैनतत्व पर उनको पूर्ण विश्वास था।
भगवान के चरण कमलों की भक्ति उसे इतनी प्रिय थी जितनी भ्रमर को कमलिनी। इनका प्रतिद्वन्दी या कोई शत्रु नहीं था। वे निर्विधन राज्य किया करते थे । सदाचार में उस समय उनका नाम सबसे ऊंचा था। सत्पुरुषों के लिए वे शीतल चन्द्रमा थे। प्रजा को अपनी सन्तान के समान पालते थे। श्रेणिक के कई रानियां थी। चेलना उन सबमें उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी । सुन्दरता, गुण और चतुरता में चेलना का प्रासन सबसे ऊँचा था। उसे जैन धर्म से, भगवान की पूजा प्रभावना से बहुत प्रेम कृत्रिम भूषणों द्वारा सिंगार करने को महत्व न देकर उसने अपनी मात्मा को अनमोल सम्यग्दर्शन रूप भूषण से विभूषित किया था। जिनवाणी सब प्रकार के ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण है और इसीकारण वह सुन्दर है। चेलना में किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की कमी न थी इसलिए उसकी रूप सुन्दरता ने और पधिक सौन्दर्गा कर लिया था।
राजगृही में एक नागदस नाम का सेठ रहता था। वह जैनी न था। उसकी स्त्री का नाम भवदता था। नागदत्त बड़ा मायाचारी था। सदा माया के जाल में वह फंसा हुप्रा रहता था। इस मायाचार के पाप से मरकर वह अपने घर के प्रांगन की बावड़ी में मेंढक हुआ। नागदत्त यदि चाहना तो कर्मों का नाश कर मोक्ष चला जाता पर पाप कर वह मनुष्य पर्याय से पशु जन्म में आया और मेंढक हुमा । प्रतएव भव्य जनों को उचित है कि वे संकट-समय में पाप न करें। एक दिन भवदत्ता इस बावड़ी पर जल भरने को आई । उसे देखकर मेंढ़क को जाति स्मरण हो गया। वह उछल-उछल कर भवदत्ता के कपड़ों पर चढ़ने लगा । भवदत्ता ने भय के मारे उसे कपड़ों पर से भिड़क दिया । मेंढ़क फिर भी उछल-उछल कर उसके वस्त्रों पर चढ़ने लगा। उसे बार-बार अपने पास प्राता देखकर भवदत्ता बड़ो चकित हुई और डर भी लगा पर इतना उसे विश्वास हो गया कि इस मेंढक का और मेरा पूर्व भव का सम्बन्ध कुछ न कुछ अवश्य होना चाहिए क्योंकि ये मेरे बार-बार झिड़कने पर भी फिर-फिर आना है। प्रस्तु किसी मुनिराज का समागम होने पर मैं इसका वृतान्त अवश्य पूछगी। भाग्य से एक दिन अवधिज्ञानी सुव्रत मुनिराज राजगृही में प्राकर ठहरे। भवदत्ता को मेंढक का वृतान्त जानने की प्रति उत्कंठा थी प्रतएव मुनि प्रागमन का समाचार सुनते ही वह उनके पास गई। मुनि के युगल चरणों में सविनय नमस्कार कर प्रार्थना करने लगी-हे प्रभो ! मुझे मेंढक का पूर्व भव का वृतान्त जानने की अति उत्कंठा है अतः माप कृपा करके कहिए।
सुव्रत मुनि ने तब उससे कहा जिसका तू हाल पूछने को आई है वह दूसरा कोई न होकर तेरा इसी भव का पति नागदत्त हैं । वह बहुत मायाचारी होने के कारण इस तिर्यंच (मेंढ़क) योनि को प्राप्त हुआ है। उन मुनिराज के संतोषजनक वचनों का श्रवण कर भवदत्ता अपने घर पर मा गई। उसने फिर मोहवश हो उस मेंढ़क को भी अपने यहां ला रखा । मेंढक वहां प्राकर बहुत प्रसन्न हुआ। अथानंतर इसी अवसर में वैभार पर्वत पर मन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान का सेमवशरण पाया। वनमाली ने पाकर छहों ऋतु के फल-फूल लाकर राजा को समर्पित किए और विनय पूर्वक निवेदन किया कि स्वामिन् ! जिनके चरण कमलों की इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि सभी महापुरुष स्तुति पूजा करते हैं वे महावीर भगवान समवशरण विभूति सहित वैभार पर्वत पर पधारे हैं जिसके