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णमोकार मेष
जब हम बालक ही मरे, प्राणन प्यारे जाहि । तौ जननी अरु तातु को, जीय रहैगो काहि ।।२।। जहां बालक तह ग्रहस्थई होत सो निह आन ।
प्राइमही के कारणं जोरत धन अधिकान ॥३॥ फिर जहां बालकों का नाश होता है, वहां हम रहकर क्या करेंगे? निदान सब लोगों ने विचार कर निश्चय किया कि यह राजा बड़ा दुष्ट और पापी है अतः इसे ही देश से निकाल देना चाहिए अतएव प्रातःकाल होते ही सब लोगों ने मिलकर बकु को राज्य-सिंहासन से उतार कर उसके गोत्रीय पुरुष को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया । कहा भी है
जापर को पंच, परमेश्वर हु सास। तातें भोभविरंच, कुचलन कबहु न चाहिए ॥१॥ लहें न फिर सुखतेह, व्यापे अपशय लोक में।
वेखो नपसुत जेह, भूप कियो अन्याय लखि ।।२।। तदनंतर वह राज्य भ्रष्ट होकर अनेक दुस्सह दुःखों को भोगता हुम्रा अपनी पाय वासना को न रोकता हुमा नगर के बाहर श्मशान भूमि में घूमता हुआ मुदों का मांस खा-खाकर दिन बिताने लगा। अन्त में वसुदेव में दाग मरण कर सातवें नरक में गया, जहां पर अगणित दारुण दुःख सहने पड़ते हैं। अतएव इस मांस-भक्षण को प्रति निंद्य एवं दुःखों का जन्मदाता जानकर सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
॥ इति मांस व्यसन वर्णन समाप्तम् ।।
॥अथ मदिरा ध्यसन वर्णन प्रारंभः ॥ यद्यपि इसका वर्णन तीन मकार में हो चुका है, तथापि सप्त व्यसनों में गणना होने के कारण यहां भी संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है।
दोहा-सड़ उपजें प्राणी अनंत, मद में हिंसा भौत।
हिंसा से प्रघ ऊपज, अघ ते अति दुख होत ॥१॥ मदिरा पी दुर्नु धि मलिन, लोटें नीच बजार । मुख में मूते कूकरा, बाद बिना विचार ॥२॥ मानुष हके मद पिवे, जाने धर्म बलाय।
प्रांस मुंबकचे पर तासों कहा बसाय ॥३॥ इस मदिरा के बनाने के लिए गुड़, महुमा, दाख तथा बबूल प्रादि वृक्षों की छाल को बहुत दिनों तक पानी में सड़ाते हैं। वह सड़कर दुर्गपित हो जाती है तथा उसमें पसंख्यात, अनन्त, सजीव, उत्पन्न हो जाते हैं पीछे उसको मसलकर यन्त्रों द्वारा अर्क निकालते हैं, वहीं खींचा हुआ मर्क, मदिरा तथा शराब व सुरा कहलाता है। वह मदिरा क्या है, मानों उसमें उत्पन्न होने वाले असंख्यात अनन्त पस जीवों के मांस का अर्फ ही है और इसको प्रायः नीच जाति के मनुष्य ही बनाते हैं । उस मर्क में कुछ पदार्थों के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण की तारतम्यता से एक प्रकार का ऐसा नशा उत्पन्न हो जाता है, जिसको पान करने से मनुष्य अपने पाप को भूलकर कर्तव्याकर्तव्य के विचार-रहित हो जाता है। कहा भी है
चित्त भ्रातिपिसे मद्यपानाङ्, भ्रांते बिते पापचया॑मुपैति । पापं हत्वा दुर्गात याम्ति, मुद्रास्तस्मान्मयं नैव पेयम् ॥