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णमोकार ग्रंथ
जब देवों के प्रतिबोधन के द्वारा उनकी बुद्धि स्थिर हुई तब उन्होंने श्रीकृष्ण के शव का अग्नि संस्कार कर दिया और संसार को लीला से विरक्त होकर भगवान के निकट दीक्षा ग्रहण कर कठिन तपश्चरण करते हए अंत में समाधिमरण कर स्वर्ग में देव हए।
इधर पांडवों ने भी भगवान के समाप जैनेंदी दीक्षा ग्रहण कर ली, देखो? यादवों ने केवल प्रज्ञान के कारण मादक जल का पान किया, उससे जब उनको ये अवस्था हई कि अपने कुल सहित सब नष्ट-भ्रष्ट हुए, तब जो जानकर मदिरा का पान करते हैं, उनको जानें क्या दशा होगी ? मदिरा पान से दोनो लोक बिगड़ते है। इसको पोकर जो अपने पापको पवित्र मानते और धर्मानुरागी कहते हैं, उनकी बुद्धि पर बड़ा आश्चर्य है क्योंकि इसको बनाने के लिए पहले तो महुअा, दाख प्रादि पदार्थ सड़ाए जाते हैं, जब उसमें दुर्गध पैदा हो जाती है तब उसमें असंख्यात, अनंत त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं तब उन्हीं का यंत्रों के द्वारा अर्क निकालते हैं, उसी को मदिरा कहते हैं और इसको नीच जाति के मनुष्य हो निकालते हैं । फिर जो इसका पान करते हैं, उनका धर्म कैसे रह सकता? कदापि नहीं रह सकता और इसके पान से अविवेकी होकर दराचरण करताना मनष्य अन्त में दुर्गति का पात्र होता है। इससे बहुंत से शारीरिक और मानसिक कष्ट भी सहने पड़ते हैं । मदिरा-पान से ही यादवों का सर्वनाश हुआ, यह प्रसिद्ध ही है । अतएव मदिरा पान को अतिनिद्य, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान कर सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । यही नहीं, इसका स्पर्श भी नहीं करना चाहिए।
॥ इति मदिरा व्यसन वर्णनम् ।।
॥ अथ घेश्या-ध्यसन-वर्णन-प्रारम्भः ।। छंद- धन कारण पापिनि प्रीति करें,
नहि तोरत नेह जया तिनको। लब चाखत नोचन के मुख की, शुचिता कब जाय छिये तिनको। मद मस बजारम खाय सबा, अन्धले विसनी न करे घिमको। गनिका संग जे शठ लीन भये,
धिक है धिक है धिक है तिनको ।। जिस प्रविवेकिनी ने तीव्र लोभ के वश में होकर वेश्यावृति को अंगीकार कर अपने कोमल तन को अपनी प्रतिष्ठा लज्जा को अपने प्रमूल्य पतिव्रत को नीच लोगों को बेच दिया है, ऐसी वेश्या का सेवन करना महानिद्य हैं। यह वेश्या बड़ी ठगनी है। जो एक बार भी इसके पास मा जाता है, उसको अपने जाल में फंसाने के लिए मीठी-मीठी बातें करती है फिर दूसरे का विश्वास तो अपने ऊपर करा लेती है परन्तु पाप दूसरे के ऊपर विश्वास नहीं करती है और धन के लोभ से उसको अपने हाव-भाव विलास प्रादि के द्वारा अपने पर प्रासक्त कर निरन्तर द्रव्य हरण का प्रयास करती है। इस पर एक कवि ने कहा है :
वर्शनात् हरते चिस, स्पर्शात हरते यलम् । भोगात् हरते बोय, मेश्या साक्षात् राक्षसी ।।