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होता है और यही आपके शासन में भी उपदिष्ट है प्रतएव आप कृपा कर कहिये किद्वारावति को नाश हेतु किम होयगो । और कौन विधि कृष्ण मरण सो जोगो ॥ तब बोले भगवान् बलदेव तुम शुभ करि । सो सुन कारण सूप कहीं सब इस घरी ॥
भगवान ने कहा - ' बलदेव सुनो-
मद के दोष उपाय द्वीपायन मुनि तें सही । बारह वरष सोजाय, होसी भसमी द्वारिका ॥ १ ॥ ग्रह पुनि जरद्कुमार ताके कर हरि मौत है । यह निश् चित घार तपलेसी सो उवरि है ॥२॥
णमोकार ग्रंथ
जिनेंद्र भगवान् के मुखारविंद से ये वचन सुनकर बलदेव ने तत्क्षण ही श्रीकृष्ण के पास जाकर यह वृत्तांत सुनाया। सुनकर श्रीकृष्ण पुरी में यह घोषणा करवा दी कि जो कोई मनुष्य आज से मदिरापान करेगा वह राजाज्ञा का विद्रोही समझा जाकर उचित दण्ड का पात्र होगा और मदिरा सम्बन्धी जितनी सामग्री तथा पात्र जिसके यहां उपस्थित है वह आज ही सब ले जाकर नगर के बाह्र पर्वत की कन्दरात्रों में फेंकों और साथ ही यह भी घोषणा करवा दी कि मेरे परिजन तथा पुरजनों में से जिसकी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा हो वह ले लेवें। इस समय मैं किसी को नहीं रोकूंगा ।
यह राजाज्ञा होते ही मंदिरा की उत्पादक सामग्री तथा पात्रों को सब लोग कंदराओंों ने फेंक आये । श्रीकृष्ण की थाठों स्त्रियों तथा उनके पुत्र और प्रजा के अनेक लोगों ने निःशंक होकर जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की। उधर यह वृत्तांत जब जरत्कुमार ने सुना तो वह भी अपने कुटुम्बी जनों को समझाकर घर से निकल कर वन में गुप्त रूप से खेटक का वेष बना कर रहने लगा । जब यह वृत्तांत द्वीपायन मुनि को मालूम हुआ तो वह भी द्वारकापुरी को छोड़कर अन्य देश में जाकर रहने लगे। परन्तु भावी को कौन रोक सकता है ? जैसाकि कहा गया है
श्रवश्यं भाषि भावनां प्रतिकरोभवेद्यादि । तथा दुःखेन लिप्येन, बलराम युधिष्ठरा ||
अर्थात् जो होनहार है वह तो अवश्य होती है। यदि भावी को रोकने का कोई उपाय होता तो राजा नल, श्रीरामचन्द्र और राजा युधिष्ठिर दुःख को प्राप्त नहीं होते ।
तदनंतर बारह वर्ष में कुछ समय शेष रहने पर एक समय यादव गण कोड़ा करने को गये । क्रीड़ा करते-करते बहुत देर हो गयी तब उन्हें प्यास ने बहुत व्याकुल किया परन्तु वहां जल का कोई पता नहीं लगा । प्रन्त में खोज करते-करते वे उस स्थान तक पहुंचे जहां मंदिरा की निष्पन्न सामग्री डाली गयी थी। वहाँ वर्षा के होने से उस मादक सामग्री में जल के मिलने से वह गर्त भर गया और वे उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुए। वे उसे जल समझकर पीकर द्वारकापुरी के पथ को ओर चल दिये । मार्ग में ही उनको बहुत तेज नशा हो गया। वे उन्मत्त होकर नाना प्रकार की निषिद्ध वेष्टाएँ करते हुए द्वारका के पास आए। वहां बारह वर्ष व्यतीत हुए जान नगरी को देखने के लिए द्वीपायन मुनि पाए थे। उन्हें देखकर इन्हें द्वीपायन मुनि के द्वारा नगरी के ध्वंस होने की बात स्मरण हो आयी। इससे क्रोधित होकर उन्होंने मुनि को असह्य कष्ट दिया। इससे मुनि अत्यंत क्रुद्ध हुए। मुनि के क्रोधित होते ही उनके बाए कंधे से अशुभ तैजस का पुतला निकला और उसके द्वारा समस्त द्वारका भस्म हो गयी ।