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णमोकार संथ
दोष युक्त महान अपवित्र मधु का जो मनुष्य एक विन्दु भी ग्रहण करता है उसे सात ग्राम के भस्म करने से भी अधिक पाप का भागी होना पड़ता है । जैसा कि कहा गया
ग्राम सप्तक विदाहि रेफसा, तुल्यतान मधुमक्षि रेफसः ।
तुल्यमंजलिजलेन कूत्र चि, निम्नगापति अलं न जायते॥ अथ-सात ग्राम के सा करने से जो पाप होता है नह छ मधु के सेवन करने से उत्पन्न हुए पाप की समानता नहीं कर सकता क्योंकि हाथ की हथेली पर रखा हुआ पानी क्या समुद्र के जल की समानता कर सकता है अर्थात् कभी नहीं । प्रतएव मधु को नाना प्रकार के दुर्गतिजनित दुःखों का दाता जानकर अहिंसा धर्म पालन करने वालों को इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। जिस प्रकार मधु में समय-प्रतिसमय असंख्यात बस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है उसी प्रकार नवनीत अर्थात् मक्खन में भी दो मूहर्त के पश्चात अनेक त्रस जीवों का उत्पन्न होना शास्त्र में कहा है
यन्मुहूर्तयुगतः परं सदा मूर्छतिप्रचुर जीव राशिभिः ।
त गिलंति नवनीत मात्रये, ते ब्रजति खलुः कामति मृताः ॥ अर्थ-दो मुहूर्त अर्थात् चार घड़ी के पश्चात् जिसमें अनेक सम्मूर्छन जीव निरन्तर पैदा होते रहते हैं ऐसे नवनीत अर्थात् मक्खन का जो पुरुष सेवन करते हैं वे अन्त में दुर्गति के पात्र होते हैं। इस विषय में अन्य प्राचार्यों का ऐसा भी मत है -
अंतर्महत्पिरतः समाजंतुराशयः।
पत्र मूछन्तिनायंत नवनीतं विवेकिभिः ।। अर्थ-तैयार होने के अन्तमुहूर्त के पीछे नवनीत अर्थात् मक्खन में अनेक सूक्ष्म सम्मूर्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसलिए विवेकी पुरुषों को वह ग्रहण नहीं करना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि धर्मात्मा पुरुषों को मधु आदि तीन मकारवत नवनीत को सम्मूर्छन जीवों का हिंसामय उत्पत्ति स्थान होने से अभक्ष्य जानकर इसका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। पांच उदम्बर फल नाम :-- जो वृक्ष के काठ को फोड़कर निकलते हैं वे उदम्बर फल कहलाते हैं । जैसे
उदुम्बरबटप्लक्ष, फरगुपिप्पल जानि च ।
फलानि पंच बोध्यान्यु, उदुम्बरास्यानिधीमताम् ।। अर्थ-बड़, पीपल, ऊमर अर्थात् गूलर, कठूमर या अंजीर और प्लक्ष अर्थात् पाकर इन पांचों वृक्षों के हरे फलों को भक्षण करने वाला पुरुष सूक्ष्म प्रौर स्थूल दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। इन पांच प्रकार के फलों में स्थूल जीव कितने भरे हुए होते हैं वे तो प्रत्यक्ष हो हिलते, चलले, उड़ते हुए अनेकों दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु उनमें सूक्ष्म जाति के भी अनेक जीव होते हैं जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते ये केवल शास्त्र रूपी ज्ञान नेत्र से ही जाने जाते हैं । यथोक्तम्--
अश्वत्यो उदुम्बरप्लक्ष, म्यग्रोधादि फलेश्वपि ।
प्रत्यक्षाः प्राणिनः स्यूलः, सूक्ष्माश्चागम गोचरः ॥ जो पुरुष इन फलों को सुखाकर तथा बहुत दिन पड़े रहने से जिनके सब त्रस जीव नष्ट हो गए हैं ऐसे फलों को भक्षण करता है वह पुरुष उनमें अधिक राग रखने से मुख्यतया भाव हिंसा पोर गौणतया द्रव्य हिंसा के दोष का भागी होता है । अभिप्राय यह है कि जो इन पांचों वृक्षों के हरित फलों के खाने से द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा दोनों होती थी तो उनके सूखने पर जब त्रस जीव मर गए हैं तो